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क्षणिकाएं

शरारतें कम कर दी मैंने जिनके उलाहने से।
वो समझ रहे हैं शायद मैं समझदार हो गया।

फंसकर रह गया जिन्दगी के उलझनों में मैं।
जिन्दगी एक पहेली थी हल ढूंढता ही रहा मै।

 जीतना जरूरी लगा जंगे जिन्दगी तुझे।
सोचा था जिन्दगी की पहेली सुलझा ही लूंगा मैं।
तुझे सुलझाने की कोशिश में उलझता ही रहा मै।

तू थी तो सारे जंग मैं सदा हारता रहा।
जीत पाने की ख्वाहिश में मैं तुझे हारता रहा।

अब मिली जो जीत को कैसे गले का हार पहनाएं।
यह हार-जीत की पहेली को भला कैसे सुलझाएं।

तुम्हारे वगैर यह जीत भी कहो कोई जीत हैं।
जिन्दगी मिली थी तू क्यू , क्यूकर निकल गई।

अब तू ही बता कि मैं हंसू या कि रो पड़ूं।
आंखें खुली तो देखा जिन्दगी निकल गई।

जीतने का कोई अर्थ नहीं जब तू ही ना रही।
तू तो पहेली थी जिन्दगी, पहेली ही तू रही।

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