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ब्रह्मचारी / निराहारी कौन?

एक बार कि बात है गोपियों को यमुना नदी के उस पार जाने थे। नदी पूरी उफ़ान पर थी । गोपियां श्री कृष्ण के समक्ष जाकर अपनी परेशानी का जिक्र किया। कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा जाओ नदी किनारे जाकर कहना -- श्री कृष्ण ब्रहम्चारी है । यमुना जी आपसबो को रास्ता दे देगी।
गोपियां आपस में चर्चा करने लगी कृष्ण अपने को ब्रहचारी कहते है।  सारे दिन हम गोपियों के पीछे भागने वाला जिसे हम सभी अपनी उंगलियों पर नचाया करती हैं। भला यह ब्रह्मचारी हो सकता है ? कृष्ण और ब्र्हमचर्य दोनों एक-दूसरे के विपरित है। यह नटखट ही नहीं एक नंबर का झूठा है। एक गोपी ने कहा चलो आज इसकी झूठ पकड़ा जाएगा। यमुना क्यो इस झूठ को सुनकर रास्ता देने वाली। उन्हें क्या यह कृष्ण कैसा हम गोपियों के पीछे भागने वाला है ,पता नहीं है ?
ऐसा आपस में सभी ने विचार किया और यमुना के किनारे पहुंच गई। वहां पहुंच कर व्यगात्मक भरे लहजे में कहा-- मां यमुना कृष्ण ब्रहमचारी है। गोपियों का इतना कहना था कि नदी दो भागों में बंट गई और बीच से रास्ता निकल आया। सभी आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे को देखने लगी। थोड़ी देर के लिए वे भूल गई , उन्हें उस पार जाने थे, तन्द्रा टूटी तो याद आया हमें रास्ता मिल गया अब चलना चाहिए। दरअसल उनसबो को अगस्त्य ऋषि को भोजन करवाने थे। जब अगस्त मुनि भोजन कर चुके तो गोपियों ने उनके सामने वही प्रश्न रखें। मुनिवर यमुना नदी में पानी की अधिकता है, हम सब उस पार अपने घर कैसे जाएं। ऋषि ने कहा-- आप सब यमुना किनारे खड़ी होकर कहे-- ऋषि अगस्त्य निराहारी है। अब इतना सुनते गोपियों के होश उड़ गए। इतने बड़े ऋषि और इतना झूठ । अभी अभी तो हमने इन्हें भोजन करवाया है।
आज का समय होता तो बात समझ में आ जाती। आज जो जितना बड़ा साधू बना बैठा है, वह उतना बड़ा शैतान है। पुराने समय में साधू महात्मा ऐसे नहीं होते थे। गोपियों ने अगस्त्य मुनि से कुछ न कहने में ही भलाई समझी।
यमुना तट पर आकर उन्होंने वहीं बात दुहराई-- ऋषि अगस्त्य निराहारी है। यमुना ने रास्ता दे दिया। गोपियां इस पार आ गई, लेकिन उन्हें चैन न था।
वे अपनी असमंजस लेकर कृष्ण के पास पहुची। हे मधुसूदन आप हम गोपियों के पीछे- पीछे घुमते हो, हमारे वस्त्र चुराते हो, फिर आप ब्रह्मचारी कैसे हुए ?
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया-- गोपियों सही कहा आपने मैं आपसबो के पीछे घुमता हूं, आपके वस्त्र चुराई, आपके लिए आपके साथ नाचता हूं। यह सब मैं आप सबो की प्रेम- भाव में करता हूं, मेरे मन में कोई वासना नहीं होती। जो वासना रहित प्रेम करनेवाले को ब्रह्मचारी ही कहते है।
अब यह भी सुन ले कृपा निधान ऋषि अगस्त्य अपने आप को निराहारी कहते हैं। हमारे सामने ही उन्होंने हमारे द्वारा लाया भोजन किया, अपने आप को निराहारी कह रहे हैं।
अब कृष्ण की मुस्कान देखते बनती थी। अगस्त्य मुनि ने सच ही कहा बालिके। वह जो कुछ खाते हैं अपने अंदर के ब्रहम के यानि मेरे लिए खाते हैं। अपनी जिह्वा की तृप्ति के लिए वे भोजन ग्रहण नहीं करते। जो भोजन अपनी प्राण के रक्षा के लिए खाता है, जिव्हा की संतुष्टि के लिए नहीं वह निराहारी ही होता है।

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