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मन को डरा धमकाकर चुप करा दिया

 


मैं वो बुझा हुआ दीया हूं।

जिसे किसी ने फिर से जलाया नहीं।


दरवाजे सालों से कुंडी खुलने की इंतजार में हैं।

बाहर से लगी कुंडी है कि कभी खुलती ही नहीं। 


मौन को अपना चरित्र बना लिया


धीरे धीरे मेरी आवाज़ भी मुझे पराई लगने लगी।

सारी तस्वीरें खामोश हो गई अब बोलती ही नहीं।


मैं वो चिट्ठी हूं जो लिखी गई पर भेजी नहीं गई।

दिवार के ताखे में रखी है दिवारे पढ़ती ही नहीं।


सन्नाटे के साथी आखिर तुमने ही साथ निभाया।

कल की यादों में डूब अपना अकेलापन छुपाया।


मन को डरा धमकाकर चुप करा दिया।

मौन को अपना चरित्र फिर बना दिया।


एक साया था जिसे अपना समझ रखा था।

अंधेरे में ना जाने वह भी कहां चला गया। ?

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