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Sari Tasveer Khamosh Hai

 


Terekrurmaunsehaarnajimanti

सब कहते हैं---वह सब देख रहा है…


तो क्या वह यह भी देखता है—  

कब, कैसे, क्यों कोई टूटता है?  

तकिये में दबी सिसकियां,  

झुकी पलकों में जमी आस की किरचे ?


ना मैं नास्तिक तो कतई नहीं हूँ,  

फिर भी विश्वास कहीं अटका है।  

कहते हो—"तेरी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता"?

तो मान लूं मैं जो टूटा हूं, यह तेरी रज़ा में शामिल हैं?


मैं जूझता रहा रिश्तों को बचाने में,  

तू हर जगह, हर पल, साथ होने का दावा करता रहा?


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में तलाशा,  

फूल, अक्षत, चंदन, आरती में खोजा,  

हर मुश्किल में तुझे ही पुकारा,  

पर हर बार—तेरे दरवाज़े बंद मिले।


मेरी पुकार दरवाज़ों से टकराकर लौट आई,  

ह्रदय विदारक शब्द भी तेरे मौन को चीर न सके।  

मेरी आस्था, तेरे क्रूर मौन से हार नहीं मानती।

कहो -- आखिर कब तक ।  


अब तो शास्त्रों से भी यकीन डगमगाने लगा है।


मेरा हर इम्तिहान तुझसे होकर ही गुजरा,  

तो क्या मेरे प्रेम या भक्ति में कमी रह गई?


मैंने तो तुझसे कभी कुछ माँगा नहीं,  

बस तुझे अपना माना—तेरे होने में खुद को पाया।  

अब फर्क सिर्फ इतना है—  

पहले तू मेरा था…  

अब मैं खुद को तेरा मानता हूँ।

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