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मेला और मैं

सोनपुर का मेला का नाम तो सुना ही होगा आपने। यह बिहार का सबसे प्रसिद्ध मेला है। यह पशुओं का सबसे बड़ा मेला है। हर तरह के जानवरों की यहां खरीद - फरोख्त होती हैं।
ग्रामिण महिलाओं का प्रिय मेला हुआ करता था। आज इंटरटेनमेंट के हजारों साधन है, इन्टरनेट में जाओ तो इन्टरटइंटर ही इंटरटेनमेंट।
बात उन दिनो की है जब महिलाओं के लिए मेला जाना अमेरिका भ्रमण से कम नहीं था। घर की सारी औरतें अपने- अपने पति से हां करवा रु थी। एक मेरी मां थी जिन्हें जाने की अनुमति मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी। मेरे पिता जी और मेला, मां हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। उन्होंने मेरी चचेरी दादी को साथ लेकर मेरे पिता जी के पास गई। जैसे ही उनके कान में सोनपुर मेला का नाम गया, वे उबल पड़े। दादीजी समझाने की कोशिश कर रही थी और पिता जी थे कि मानने को तैयार नहीं। दादीजी ने कहां रमेशवा त सबके साथ जा ही रहल वा फिर एकरा जाए देबे में तोरा काहे ऊजूर हव । पिताजी ने मां से कहा मैं मना कर रहा हूं तो चाची से पैरवी करवा रहीं हैं जाइए हसते जाइएगा रोते आइएगा।
अब घर में गहमागहमी का माहौल था। दादीजी, चाची,दो दोनों भाभियां मां सब तैयारी में जुट गई। मां ने साथ चलने में मुझे चुना। उस समय तो मुझे समझ नहीं आई, अब समझ पा रहीं हूं।पहल प बात मां जो कहती थी मैं चुपचाप मान लिया करती थी।दूसर  बात मुझे पैर दबाने में अचछअ लगता था।तीसरी बात मेरा उम्र नौ-दस साल रहा होगा ।चौथी बात मैं काली थी, मां को लगता इसे कौन देखेगा। बात कोई भी हो सभी भाई बहनों में मेरा चुना जाना मेरे लिए गौरव की बात थी।
नियत समय पर हम सभी रेलगाड़ी से हाजीपुर पहुंचे।बच्चो ब में मेरे सिवा भाभी के तीन बच्चे थे। मेला दूर से ही नजर आ रहा था, हमारी खुशी बढतेब जा रही थी। आज वहां पहुंच कर खाना बनाने थे और खाकर सो जाना था। खाना बनाने का सारा सामान साथ में था। लकड़ी और ईंट की व्यवस्था की गई । खाने भाभियां बनाई। हम खाना खाकर नदी किनारे चादर बिछाकर सो गए।....

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