सबेरे जल्दी उठने थे, नदी में स्नान करके अपने पाप उतारने थे। बच्चे को क्या पता नदी में नहाते पाप धूल जाते। बच्चों को जबरन उठाया गया, जो चल नहीं पा रहें गोद में आ गए। घाट पर काफी भीड़ थी। जैसे तैसे नहाना हुआ। मेरे लिए तो आज भी नदी में स्नान करना किसी मुसीबत से कम नहीं। नदी में चलते पानी की आवाज बड़ी भयावह लगती है मुझे।
वहां से चलते वक्त मेरा हाथ दादी ने पकड़ा हुआ था, भीड़ का ऐसा रेला आया कि हम सबसे बिछड़ गए। दादीजी मेरा हाथ पकड़े यहां वहां सबको ढूढती रही। सुबह से शाम होने को आईं, भूख से मैंने रोना शुरू कर दिया। दादीजी के पास पैसे थे नहीं मैं चुप होने को तैयार नहीं। अब दादीजी के सामने एक ही रास्ता बचा किसी से कुछ मांगा जाए। मुझे याद है उन्होंने कैसे एक आदमी को कहा था (कुछ खाने को दे दो बच्ची भूख से रो रही है) उसने मूढी और बताशे दिए। वहां से थोड़ी दूर जाकर मैं ओर दादी जमीन में बैठे फिर हम दोनों ने मूढ़ी बताशे खाएं। उन दिनों पानी की कोई चिंता नहीं हुआ करती थी, नल से पानी पी।
धीरे-धीरे शाम रात में तब्दील होने लगी, चलते चलते पैर भी तक गए थे। फिर भी अपनों को खोजने में हम लगे थे। अब लगता दादीजी भी थक गई। एक जगह एक पूरा परिवार बैठा था । चुल्हे पर डेकची चढी थी, दादीजी ने उनको सारी बातें बताई। बहुत अच्छे लोग थे, दादी को ढाढस बंधाया। मां जी बच्ची को लेकर कहां जाओगे, खाना खाकर यही सोच जाओ। हमारे सामने उनकी बातों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। खाने को खिचड़ी और आचार मिले। भर पेट खाते नींद ने आ घेरा। उन्होंने एक चादर देते हुए कहा मां जी यह एक ही चादर है किसी तरह काम चलाओ।
जमीन में चादर बिछाकर हम-दोनों लेट गए। नवम्वर का महीना था ठंड लग रही थी, दादीजी ने मुझे सीने से लगा लिया , और अपने आंचल मुझे उढा दिए। दादी का नहीं पता मुझे तो ऐसी नींद आई, कि आज भी सोचती हूं क्या था आखिर उस आंचल में दुबारा कभी ऐसी नींद नहीं आई???
वहां से चलते वक्त मेरा हाथ दादी ने पकड़ा हुआ था, भीड़ का ऐसा रेला आया कि हम सबसे बिछड़ गए। दादीजी मेरा हाथ पकड़े यहां वहां सबको ढूढती रही। सुबह से शाम होने को आईं, भूख से मैंने रोना शुरू कर दिया। दादीजी के पास पैसे थे नहीं मैं चुप होने को तैयार नहीं। अब दादीजी के सामने एक ही रास्ता बचा किसी से कुछ मांगा जाए। मुझे याद है उन्होंने कैसे एक आदमी को कहा था (कुछ खाने को दे दो बच्ची भूख से रो रही है) उसने मूढी और बताशे दिए। वहां से थोड़ी दूर जाकर मैं ओर दादी जमीन में बैठे फिर हम दोनों ने मूढ़ी बताशे खाएं। उन दिनों पानी की कोई चिंता नहीं हुआ करती थी, नल से पानी पी।
धीरे-धीरे शाम रात में तब्दील होने लगी, चलते चलते पैर भी तक गए थे। फिर भी अपनों को खोजने में हम लगे थे। अब लगता दादीजी भी थक गई। एक जगह एक पूरा परिवार बैठा था । चुल्हे पर डेकची चढी थी, दादीजी ने उनको सारी बातें बताई। बहुत अच्छे लोग थे, दादी को ढाढस बंधाया। मां जी बच्ची को लेकर कहां जाओगे, खाना खाकर यही सोच जाओ। हमारे सामने उनकी बातों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। खाने को खिचड़ी और आचार मिले। भर पेट खाते नींद ने आ घेरा। उन्होंने एक चादर देते हुए कहा मां जी यह एक ही चादर है किसी तरह काम चलाओ।
जमीन में चादर बिछाकर हम-दोनों लेट गए। नवम्वर का महीना था ठंड लग रही थी, दादीजी ने मुझे सीने से लगा लिया , और अपने आंचल मुझे उढा दिए। दादी का नहीं पता मुझे तो ऐसी नींद आई, कि आज भी सोचती हूं क्या था आखिर उस आंचल में दुबारा कभी ऐसी नींद नहीं आई???
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