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ख़ुद से रूठ बैठे हैं

आज हम खुद से रूठे बैठे हैं।
जब से उनको भूलाए बैठे हैं।
राह सही हो या कि फिर हो गलत।
हर राह पर चलने को तैयार बैठे हैं।
आज हम खुद से रूठ बैठे हैं।

बहार आए या आ जाए फिजा।
अब कोई फर्क ही रहा है कहां ?
बहार में रोना फिज़ा में हंसना सीख बैठें हैं।
आज हम खुद से रूठे बैठे हैं।

बच्चें थे गुड़िया के लिए झगड़ते थे।
मां के पास सोने के लिए अकड़ते थे ।
अब खुद से ही हम लड़ते हैं।
खुद रूठते फिर मान लेते हैं।

गाहे-बगाहे खुद, हम से ही उलझ पड़ते हैं।
अपनी उलझन को खुद ही सुलझाऊ कैसे।
रूठा है मन इसे बहलाऊं कैसे?
चलों गोलगप्पे तूझे खिला लाऊं।
भरी बारिश में तूझे नहला आऊं।

थी गलती मेरी कि मैंने न समझा तूझे।
सारी जिन्दगी लगा दी तुम्हें मनाने में।
तुम ही लगे हो मुझे, मुझ से यूं लड़ाने में।
तुम न मानोगे तो लो मैं भी रूठ जाता हूं।
तुम्हारे वास्ते यह गम भी सर चढाता हूं।

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