आज शादी का दिन था चारों तरफ गहमा गहमी थी।माँ ने मुझे बुलाकर गहने दिखाया। जो पहनने हैः रख लो बाकि शादी में चले जाएगे। मैं आश्चर्य से माँ की तरफ देखा। माँ समझ गई मैं समझ नहीं पा रही यह क्या हो रहा है। उन्होंने पूरी बात बताई। दरअसल मामाजी को अपनी और लड़की वालों की इज्जत बचानी थी, हो उन्होंने मां से कहा था मेरे जेवर लेकर आए। शादी में समाज में उन्हें दिखाने थे। अब पूरी बात मेरे समझ में आई।
शादी बड़ी शानो-शौकत से हुई ।चार दिन बाद लड़की यानि बहु आ गई। लड़की करता एक गुड़िया थी। धीरे धीरे सारे अतिथि अपने घरों को वापस जाने लगे। पिताजी ने जब चलने की अनुमति मांगी तो मामाजी का आदेश आया आपके कोर्ट खुले हैं, आप चलें जा सकते लेकिन जानकी ( मेरी मां) और बच्ची (मैं) को रहने दें। मैंने मां से कहा आप जानते हो,मेर मैट्रिक के रिजल्ट आ चुके हैं, मुझे एडमिशन लेनी है।
मेरी शादी के मात्र दो महीने हुए थे, मेरे पतिदेव शादी के एक सप्ताह बाद कॉलेज चलें गए थे उनकी थर्ड इयर इंजिनियरिंग की परिक्ष होने वाली थी। वे परिक्षा देकर घर आ रहें थे। ससुराल वालों का आदेश था मैं ससुराल आ जाऊं। मां ने कहा मैं समझती हूं लेकिन नई बहु को सवा महीने ज़ेवर नहीं उतारने होते अशुभ होता है,इस इस हमें रुकने होगे।
मन मेरा भी बहुत लग रहा था,आम का मौसम,नई बहु से गप्पे सुनना, सुनना इसलिए कहा मैं सुनती ही थी,बोलती नहीं थी। मां के शब्दों में मेरे बोलने की कीमत बहुत है यानि मेरी बोलूंगी तो पैसे ख़र्च होगे।
पिताजी चलें गए और हम दोनों रह गए। मेरे नसीब में यह सवा महीने रईसों की जिन्दगी लिखी थी। बड़े अच्छे दिन थे, यादगार बन कर रह गए। समय पंख लगा कर निकल जाते है।अब हमारे लौटने का समय आ गया।
मैं नई बहु के कमरे में लेटी थी। उसने उलाहने के तौर पर बताया, जानती है सासु जी ने सारे ज़ेवर लेकर बक्से में डाल दिए। मैंने कहा भी गले का चेन और हाथ के कंगन रहने दें कुछ दिन और पहनना चाहती हूं। लेकिन वो बोली तुम्हारे गले में मंगलसूत्र तो है,अब क्या चार पहननी है। मैंने सब उतारकर दे दिया। देखिए न कैसा सूना लग रहा है।
मैं क्या बोलूं कैसे कहूं ऐ सारे जेवर उधार के थे। कह तो कुत नहीं पाई पर उसके दर्द मैं अपने सीने में महसूस कर रही थी।
मैंने मां से इसका जिक्र भी किया क्या गहनों को कुछ दिन और नहीं छोड़ा जा सकता। मां ने समझाया बहु अभी नई है क्या पता बाद में ना लौटाएं तो मामाजी कहां से लाकर तुम्हें देंगे।
सच उस दिन बहुत बुरा लगा, आदमी कितना छोटा है पैसों के आगे। समाज में आदमी की इज्जत पैसों से है। पैसा साधन नहीं साध्य बन गया है। तभी तो इतनी बेइमानी देखने को मिलता है। आदमी ऐन केन प्रकारेन पैसे कमाना चाहता है।
दूसरी चीज मेरे दिमाग में चल रहा था, दिखावा की जरूरत ही क्यो पड़ती है। हम जो है जैसे है क्यो नहीं समाज हमें उसी हाल में स्वीकार कर लेता।
साथ ही मां के मधुर उलाहने जो पिताजी को दिया करती थीं कानों में गूंजती सुनाई दे रही थी। अरे मैं जब आई थी मेरे बालों में सोने की लड़ियां गुथी हुई थी,एक बोरे चांदी के सिक्के आए थे। मेरे साथ चेरिया (नौकरानी) थी। इनके यहां तो खाने बनाने से लेकर चावल कूटने का काम घर की औरतें ही करती थीं। पिताजी चुपचाप मुस्कराते हुए सुनते, सच्चाई थी भी यही।
समय किस तरह पलट जाता है, आज जब बात मैके की है, नैहर वालों की इज्जत का सवाल था तो मां ने पिताजी से छुपाकर सहायता की। मुझे नहीं लगता मां और मेरे सिवा किसी और को पता चला।
शादी बड़ी शानो-शौकत से हुई ।चार दिन बाद लड़की यानि बहु आ गई। लड़की करता एक गुड़िया थी। धीरे धीरे सारे अतिथि अपने घरों को वापस जाने लगे। पिताजी ने जब चलने की अनुमति मांगी तो मामाजी का आदेश आया आपके कोर्ट खुले हैं, आप चलें जा सकते लेकिन जानकी ( मेरी मां) और बच्ची (मैं) को रहने दें। मैंने मां से कहा आप जानते हो,मेर मैट्रिक के रिजल्ट आ चुके हैं, मुझे एडमिशन लेनी है।
मेरी शादी के मात्र दो महीने हुए थे, मेरे पतिदेव शादी के एक सप्ताह बाद कॉलेज चलें गए थे उनकी थर्ड इयर इंजिनियरिंग की परिक्ष होने वाली थी। वे परिक्षा देकर घर आ रहें थे। ससुराल वालों का आदेश था मैं ससुराल आ जाऊं। मां ने कहा मैं समझती हूं लेकिन नई बहु को सवा महीने ज़ेवर नहीं उतारने होते अशुभ होता है,इस इस हमें रुकने होगे।
मन मेरा भी बहुत लग रहा था,आम का मौसम,नई बहु से गप्पे सुनना, सुनना इसलिए कहा मैं सुनती ही थी,बोलती नहीं थी। मां के शब्दों में मेरे बोलने की कीमत बहुत है यानि मेरी बोलूंगी तो पैसे ख़र्च होगे।
पिताजी चलें गए और हम दोनों रह गए। मेरे नसीब में यह सवा महीने रईसों की जिन्दगी लिखी थी। बड़े अच्छे दिन थे, यादगार बन कर रह गए। समय पंख लगा कर निकल जाते है।अब हमारे लौटने का समय आ गया।
मैं नई बहु के कमरे में लेटी थी। उसने उलाहने के तौर पर बताया, जानती है सासु जी ने सारे ज़ेवर लेकर बक्से में डाल दिए। मैंने कहा भी गले का चेन और हाथ के कंगन रहने दें कुछ दिन और पहनना चाहती हूं। लेकिन वो बोली तुम्हारे गले में मंगलसूत्र तो है,अब क्या चार पहननी है। मैंने सब उतारकर दे दिया। देखिए न कैसा सूना लग रहा है।
मैं क्या बोलूं कैसे कहूं ऐ सारे जेवर उधार के थे। कह तो कुत नहीं पाई पर उसके दर्द मैं अपने सीने में महसूस कर रही थी।
मैंने मां से इसका जिक्र भी किया क्या गहनों को कुछ दिन और नहीं छोड़ा जा सकता। मां ने समझाया बहु अभी नई है क्या पता बाद में ना लौटाएं तो मामाजी कहां से लाकर तुम्हें देंगे।
सच उस दिन बहुत बुरा लगा, आदमी कितना छोटा है पैसों के आगे। समाज में आदमी की इज्जत पैसों से है। पैसा साधन नहीं साध्य बन गया है। तभी तो इतनी बेइमानी देखने को मिलता है। आदमी ऐन केन प्रकारेन पैसे कमाना चाहता है।
दूसरी चीज मेरे दिमाग में चल रहा था, दिखावा की जरूरत ही क्यो पड़ती है। हम जो है जैसे है क्यो नहीं समाज हमें उसी हाल में स्वीकार कर लेता।
साथ ही मां के मधुर उलाहने जो पिताजी को दिया करती थीं कानों में गूंजती सुनाई दे रही थी। अरे मैं जब आई थी मेरे बालों में सोने की लड़ियां गुथी हुई थी,एक बोरे चांदी के सिक्के आए थे। मेरे साथ चेरिया (नौकरानी) थी। इनके यहां तो खाने बनाने से लेकर चावल कूटने का काम घर की औरतें ही करती थीं। पिताजी चुपचाप मुस्कराते हुए सुनते, सच्चाई थी भी यही।
समय किस तरह पलट जाता है, आज जब बात मैके की है, नैहर वालों की इज्जत का सवाल था तो मां ने पिताजी से छुपाकर सहायता की। मुझे नहीं लगता मां और मेरे सिवा किसी और को पता चला।
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