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Man ko kabhi dhup dikhati ho |
तुम तों स्त्री हो कुछ भी बर्बाद नहीं करती।
सब कुछ संभालने में दिन-रात लगी रहती।
खुद को संभालती उड़ने की चाह नहीं रखती।
परिंदों सा उड़ने का कभी ख्वाहिश नहीं रखना।
कटे- फटे वस्त्र पर टांका लगा तुरपाई करती।
प्लास्टिक थैली भी फेंकती नहीं सहेजा करती।
दिनभर मेहनत करती कभी आराम नहीं करती।
परिंदों सा उड़ने का भूलकर ख्वाहिश नहीं रखना।
खाली डिब्बे भी भविष्य के लिए धोकर संजोती।
खाली डिब्बे सा संसार है क्या? समझा नहीं करती।
बिखरते रिश्ते संभालने में कभी चूका नहीं करती।
परिंदों सा उड़ने का भूलकर ख्वाहिश नहीं रखना।
दीवारों की सीलन को कालेन्डर से छिपाती।
छोटे- छोटे चिल्लर से तुम गुल्लक को भरती।
रात की बची रोटी बासी सब्जी प्रेम से खाती।
परिंदों सा उड़ने का भूलकर ख्वाहिश नहीं रखना।
झाड़ू - बरतन और बच्चों के नैपकिन साफ़ करती।
सबको खिलाकर जूठे थाली में पड़ी सब्जी खाती।
शायद मन मार कर रहना संस्कार से बटोर लाती।
परिंदों सा उड़ने का भूलकर ख्वाहिश नहीं रखना।
तुम तों फफूंद लगे दाल अचार को धूप दिखाती।
बडी पापड़ बनाते-बनाते साथ में बटन भी टांकती।
कहो *अपने मन को क्या कभी तुम धूप दिखाती ? परिंदों सा उड़ने का भूलकर ख्वाहिश नहीं रखना।
एक मकान को शक्लें देकर घर बनाती स्त्री।
पल दो पल अपने लिए भी तो जीकर देखो।
मन का बटन खोल परिंदों सा उड़ कर देखों।
मकड़ जाल से थोड़ा सा वक्त चुरा कर देखों।
तेरे साथ जो परिंदों रहते हैं , वह उड़ना जानते हैं।
वो परिंदे सबके साथ उड़ने की ख्वाहिश रखते है।
हिम्मत तोड़ने वाले परिंदों के साथ नहीं उड़ना।
तुम अकेले उड़ सकती हो तभी उड़ान भरना।
अपनी काबिलियत के दम पर तुम उड़ सकती ?
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