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संतान-- लघुकथा

हमारे यहां रिवाज है कोई कहीं से आए तो मिलने जाते हैं। मेरे पड़ोस की चौधराईन भी बेटे-बहु के यहां से आई थी । उनसे मिलने जाना था। कहते हैं हर चीज की हद होती है पर घर के काम की कोई हद नहीं होती। एक निपटाओ दूसरी नज़र आ जाती है। किसी तरह काम को समाप्त किया। जुड़़बा काम जैसे इधर सब्जी चढाई पानी डालकर ढकने के बाद कपड़े लेकर वाशरूम में भागी। मेरे पास बस इतना सा समय था सब्जी पक तो जाए लेकिन जले नहीं और वह भी तब जब गैस कम कर रखीं थीं। स्नान करके पूजा करने के बजाय कीचेन में भागी। भगवान मुआफ करते रहते हैं। वह समझ ही गए होंगे मैं उनका पूजा करती तो सब्जी जल जाती। अब सब्जी बन गई , उसे गैस से हटाते हुए मैंने सोचा क्यों न दाल डाल दूं फिर पूजा कर लूंगी। भगवान कहीं भागे थोड़े जा रहे हैं,जब इतनी देर रुक ही गए थोड़ी देर और रूक लेगे। इतने उत्तम विचार मेरे दिमाग में आए। मैं दाल डालकर जैसे -तैसे भगवान को अगरबत्ती दिखा रहीं थी, हाथ में अगरबत्ती हिल रही थी, दिमाग में चल रहा था कौन सी साड़ी पहनूंगी। कभी-कभी भगवान को ऐसा धोखा भी देना पड़ता है, प्रभु ठहरे भोले भाले उनके समझ में कहां आनेवाली मैं मन में उनका नहीं अपने वस्त्र का ध्यान कर रही थी।
                                   एक बात और समझ नहीं पा रही चौधराईन तो कहकर गई थी अब बेटे के साथ बैंगलोर में ही रहना होगा। यहां कोई काम तो बचा नहीं। घर में ताला लगा रही हूं, कभी आकर घर को सारे फर्निचर के साथ भाड़े पर दें दूंगी। चौधरी जी को मकान भाड़े पर देने की इच्छा नहीं है। कहते हैं--
बेटे की अच्छी तनख्वाह है । चौधरी जी को पेंशन वाली नौकरी नहीं थी, फिर भी कम्पनी ने इतना पैसा दिया है कि हमें किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने होंगे। बेटा-बहू भी बहुत अच्छे मिलें हैं। बहू जब तक रहती है एक काम नहीं करने देती।  ऐसा कहने वाली चौधराईन आखिर तीन महीने में वापस कैसे आ गई ?.....

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