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Detachment ka mahatva

 


         Detachment का अर्थ और महत्व*

1. *संबंधों में स्वतंत्रता*

असंग Detachment का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति प्रेम या संबंधों को त्याग दे, बल्कि यह है कि वह किसी भी चीज़ से इस तरह न जुड़े कि आपकी आंतरिक शांति प्रभावित हो।


2. *आत्मा और शरीर का भेद* – गीता के अनुसार, आत्मा शाश्वत है और शरीर नश्वर। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो हम बाहरी चीज़ों से कम प्रभावित होते हैं, जितना हम बाहरी चीजों से प्रभावित होते हैं उतना हम भावनात्मक, मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं।


3. *कर्मयोग का सिद्धांत*

असंग या Detachment का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि व्यक्ति अपने कार्यों को निष्काम भाव से करे—अर्थात् फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करे।


4. *सुख-दुःख से परे रहना* – जब हम किसी चीज़ से अत्यधिक जुड़ जाते हैं, तो उसकी हानि या परिवर्तन हमें मानसिक रूप से कमजोर बना सकता है। Detachment हमें इन उतार-चढ़ावों से मुक्त करता है।


*कैसे अपनाएं असंगAttachment?*


*स्वयं को पहचानें*–

आत्मा और शरीर के भेद को समझकर अपनी आंतरिक शक्ति को पहचाना जा सकता है। मैं कौन हूं ? क्या मैं शरीर हूं ?

*संबंधों में संतुलन बनाए रखें* – प्रेम और कर्तव्य निभाएं, लेकिन भावनात्मक निर्भरता से बचें।


*कर्मयोग का अभ्यास करें*– अपने कार्यों को समर्पण भाव से करें, लेकिन उनके परिणामों से स्वयं को न जोड़ें। परिणाम आपके इच्छानुसार आए या नहीं, हर हाल में अपने को प्रभावित होने से बचाएं।


*ध्यान और आत्मचिंतन करें* – नियमित ध्यान और आत्मचिंतन से मानसिक स्थिरता प्राप्त करें।


यह विचार न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि **व्यावहारिक जीवन** में भी बहुत उपयोगी है। जब हम असंग Detachment को अपनाते हैं, तो हम अधिक शांत, स्थिर और आत्मनिर्भर बनते हैं।


Attachment की तुलना विभिन्न दार्शनिक विचारों से करने पर हमें यह समझ आता है कि यह अवधारणा कई परंपराओं में अलग-अलग रूपों में मौजूद है।

आइए इसे कुछ प्रमुख दार्शनिक दृष्टिकोणों से तुलना करें:


*1. भारतीय दर्शन: वैराग्य और कर्मयोग**  

- **भगवद गीता** में Attachment को वैराग्य और कर्मयोग के रूप में देखा जाता है। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन फल की चिंता किए बिना।  

यह विचार *अद्वैत वेदांत* से भी जुड़ा है, जहाँ आत्मा को ब्रह्म से अभिन्न माना जाता है और संसार को माया के रूप में देखा जाता है।  


*2. बौद्ध दर्शन: *अनित्य और अनात्म* नहीं

बौद्ध धर्म में Attachment का विचार *

*अनित्य (Impermanence)* और *अनात्म (No-Self)* से जुड़ा है। 


-बुद्ध ने सिखाया कि सभी चीज़ें अस्थायी हैं, और किसी भी चीज़ से अत्यधिक जुड़ाव दुःख का कारण बनता है।

 

*निर्वाण* की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को मोह और तृष्णा से मुक्त होना आवश्यक है।  


*3. स्टोइक दर्शन (Stoicism): भावनात्मक स्वतंत्रता* 

स्टोइक दार्शनिकों जैसे **सेनेका, एपिक्टेटस और मार्कस ऑरेलियस** ने सिखाया कि हमें बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। 

वे मानते थे कि हमारी भावनाओं पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए, और हमें उन चीज़ों से जुड़ाव नहीं रखना चाहिए जो हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, जो आपके भावना को प्रभावित करें।


5. अस्तित्ववाद (Existentialism): व्यक्तिगत स्वतंत्रता*

- **सार्त्र और कैमू** जैसे अस्तित्ववादी दार्शनिकों ने कहा कि व्यक्ति को अपने अस्तित्व की ज़िम्मेदारी स्वयं लेनी चाहिए। आप अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते।

वे मानते थे कि जीवन का कोई पूर्व निर्धारित अर्थ नहीं है, और हमें अपने निर्णयों के माध्यम से इसे बनाना होता है।  

Detachment की तरह, अस्तित्ववाद भी आंतरिक स्वतंत्रता पर ज़ोर देता है, फिर भी दोनों एक-दूसरे से अलग है ।  


**निष्कर्ष**  

Detachment का विचार कई दार्शनिक परंपराओं में अलग-अलग रूपों में पाया जाता है। भारतीय दर्शन इसे आत्मा की स्वतंत्रता और कर्मयोग से जोड़ता है।

बौद्ध धर्म इसे अनित्य और निर्वाण से, स्टोइक दर्शन इसे भावनात्मक नियंत्रण से, और अस्तित्ववाद इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़ता है।


 #नोट# - जब हमारा शरीर और आत्मा ही एक नहीं है भूल बस हम दोनों को एक मान बैठे हैं। भावनात्मक रूप से जब आप किसी वास्तु स्थान या किसी मनुष्य के साथ अपने को जोड़ते हैं तो, अंततः आपको दुख का सामना करना पड़ता है।

जिस वस्तु, स्थान, मकान, जमीन, पति पत्नी, बच्चे प्रेमी-प्रेमिका को अपना समझ कर भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। इनमें से किसी की क्षति होने पर आप अंततः आप टूट जाते हैं।


यह जिंदगी, आपका शरीर, आपकी आत्मा परमात्मा के द्वारा दिया गया अमूल्य उपहार है। जिसे अतंत: आपको उन्हें वापस लौटना है। आप इस शरीर रूपी खिलौना को तभी संभाल कर रख सकते हैं जब आप भावनात्मक स्तर पर अपने को मजबूत बनाते हैं।


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