एक पुरानी कहानी सुनी-सुनाई
चार दोस्त—एक हिंदू, एक मुस्लिम, एक सिख, और एक ईसाई—सफ़र पर निकले थे। रास्ते में उन्हें एक विशाल और भयंकर नदी मिली, जिसे पार किए बिना आगे बढ़ना असंभव था। कोई पुल नहीं था, कोई अन्य उपाय नहीं था—सिर्फ यह एक रास्ता था।
वे निर्णय लेते हैं कि वे एक-एक कर नदी पार करेंगे, ताकि अगर कोई मुश्किल आए तो दूसरे उसका सहारा बन सकें।
सबसे पहले, सरदार जी आगे बढ़ते हैं। वह साहस के साथ *वाहेगुरु* का नाम लेते हैं और विश्वास से छलांग लगाते हैं। कुछ ही क्षणों में वह नदी के पार पहुंच जाते हैं।
उनके साहस को देखकर ईसाई मित्र आत्मविश्वास से भर जाता है। वह *यीशु मसीह* का नाम लेकर छलांग लगाता है और बिना किसी परेशानी के पार हो जाता है।
अब तीसरे दोस्त, मुस्लिम की बारी आती है। वह बिना संकोच *खुदा* को याद करता है और पूरा भरोसा रखते हुए कूदता है। और वह भी सुरक्षित उस पार पहुंच जाता है।
अब हिंदू मित्र की बारी आती है। वह ठिठक जाता है। उसके सामने एक मुश्किल सवाल खड़ा हो जाता है—*मैं किसे पुकारूं? मेरे तो असंख्य देवी-देवता हैं!*
संशय उसके भीतर घर कर जाता है। वह सोचता है—सरदार, ईसाई, और मुस्लिम दोस्त अपने-अपने ईश्वर का नाम लेकर सुरक्षित पार हो गए हैं, लेकिन मुझे नहीं पता किसका नाम लेना चाहिए!
अंत में, वह सोचता है—क्यों न मैं भी खुदा को ही पुकारूं? आखिर, मेरे दोस्त खुदा 🙏को पुकारा और बच गया।
यह सोचकर वह खुदा को याद कर छलांग लगाता है… लेकिन उसका विश्वास डगमगाने लगता है। उसकी आत्मा संशय से भर जाती है। और वह नदी की गहराइयों में डूब जाता है।
यह कहानी एक गहरी सच्चाई को उजागर करती है—*सच्चा विश्वास ही बचाता है।*
विश्वास सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर होना चाहिए। अगर मन में संदेह हो, तो वह सबसे बड़ी बाधा बन जाता है।
इस कहानी का हर किरदार एक सत्य को दर्शाता है—जो पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ आगे बढ़ते हैं, वे अपनी राह पा लेते हैं।
लेकिन जो अपने भीतर ही असमंजस से घिरे रहते हैं, उनकी यात्रा वहीं रुक जाती है। श्रद्धा निष्ठा विश्वास नहीं वहां असमंजस रास्ता रोक देता है।
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