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भीड़ से क्यों डरती हूं |
**भीड़ का भय और एक अनकही कृतज्ञता**
भीड़—यह मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि एक शक्ति है। यह लोगों को आकर्षित करती है, कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी इसका हिस्सा बनकर अपने को शक्तिशाली महसूस करता है।
भीड़ कई तरह के ख़तरों को जन्म दे सकती है, खासकर जब यह अनियंत्रित या उग्र हो जाए।
बचपन में मेला हो या कोई भी भीड़-भरी जगह, मुझे इनका आकर्षण बहुत भाता था। मैं भी मेले में जाने को उत्साहित रहती थी।
हम सब महसूस कर सकते हैं, कि अब बच्चों को अपने माता-पिता से अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने की अधिक स्वतंत्रता है।
लेकिन मेरे बचपन के दिनों में ऐसा नहीं था। बच्चों की ख्वाहिशों का कोई महत्व नहीं होता था; उन्हें बस माता-पिता की योजनाओं में समायोजित होना पड़ता था।
**मुझे भी मेले में जाने का अवसर मिला**
एक दिन, जब मेरे घर में मेले में जाने की योजना बन रही थी, मैं चाहकर भी अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर पा रही थी।
लेकिन तभी माँ ने मुझे साथ ले जाने का निश्चय किया। माँ मुझे बहुत पसंद करती थीं—पर इसका कारण सुनकर आप हैरान रह जाएँगे।
मैं बहुत कम बोलती थी, शायद ना के बराबर। मेरी त्वचा का रंग सांवला था, और माँ को लगता था कि इस रंग के कारण मुझे कहीं ले जाने में कोई जोखिम नहीं।
मेरी दोनों बहनें गोरी थीं, और उनका रूप उनके लिए एक असुरक्षा बन गया था, जबकि मैं अपने सांवले रंग के कारण माँ की सहज पसंद बन गई। ईश्वर की कृपा से मुझे मेले में जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
**भीड़ के बीच एक भयावह अनुभव**
मेले में जाने का अवसर तो मिल गया, लेकिन वहाँ मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरे जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया।
भीड़ में चलने का अनुभव विचित्र होता है। वहाँ आप अपने पैरों पर नहीं, बल्कि दूसरे लोगों के धक्कों से आगे बढ़ते हैं। आप खुद नहीं चलते, बल्कि भीड़ आपको धक्का देकर आगे बढ़ाती है। दुर्भाग्यवश, मैं भी इस प्रवाह का हिस्सा बन गई।
भीड़ का सबसे बड़ा खतरा अचानक का भगदड़। जब कोई व्यक्ति गिर जाता है तो भीड़ उसके उपर से निकलने लगती है जिससे जान का खतरा बढ़ जाता है।
अचानक, मैं नीचे गिर गई। मेरे ऊपर से लोगों के जूते-चप्पल पहने पैर निकलते चले गए। पहले तो मुझे बहुत तकलीफ हुई, दम घुटता हुआ महसूस होने लगा, और फिर धीरे-धीरे सबकुछ धुंधला पड़ गया। मुझे कुछ भी महसूस होना बंद हो गया। शायद मैं बेहोश हो गई थी।
**एक अनदेखा फ़रिश्ता**
तभी, कोई मेरे ऊपर आकर गिरा। यह संयोग भी हो सकता था, या फिर जान-बूझकर किया गया जान बचाने का प्रयास—पर इसने मेरी जान बचा ली, मसीहा बनकर।
जब मुझे होश आया, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी ज़िंदगी बचाने में किसी इंसान का हाथ था। वह कोई भी हो सकता था—कोई व्यक्ति, कोई फ़रिश्ता🙏एक महिला या पुरुष, कोई बूढ़ा जवान या शायद कोई बच्चा ।
आज भी मैं सोचती हूँ—काश, मैं उस व्यक्ति को देख पाती, उससे मिल पाती, दो शब्द धन्यवाद के कह पाती। मैं नहीं जानती कि वह इंसान अभी जीवित है या नहीं।
ऐसे लोग जिनको आप तमाम उम्र ढ़ुढते रहते बस अपनी ओर से कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए। एक कसक सी बनी रहती है शायद कभी उनसे मुलाकात हो जाए।
मेरे मन में हमेशा एक प्रश्न गूँजता है: **कैसे होते हैं वे लोग जो अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की रक्षा करते हैं?**
**भीड़ का भय अब भी जीवित है**
यह छोटी-सी घटना मेरे साथ जीवन भर चली। मैंने हमेशा भीड़ से डरना शुरू कर दिया।
भीड़ में व्यक्तिगत निर्णय लेने की जगह समूह के साथ बहने की शक्ति होती है।
भीड़ में जो शक्ति होती उसे नकारा नहीं जा सकता। इस शक्ति का उपयोग कर अच्छे-बुरे सारे कर्म किए जा सकते हैं।
आज भी जब कहीं भीड़ देखती हूँ, भयभीत हो जाती हूँ और तुरंत वहाँ से भाग निकलती हूँ।
चाहे भीड़ में कितनी भी शक्ति क्यों न हो, मैं उसके आगे नतमस्तक नहीं होना चाहती। भीड़ में खोना नहीं चाहती।
माना अकेले चलना कठिन होता है, लेकिन जब चुनाव करना हो—अकेले चलने और भीड़ का हिस्सा बनने के बीच—तो मैं हमेशा अकेले चलना ही चुनना चाहुंगी ।
लोग कहते हैं कि मैं डरपोक हूँ, कि मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं है। शायद यह सच हो। पर मैं कभी भी भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहुंगी।
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