बहुत पहले की बात है जब फिल्म देखना बुरा माना जाता था । इन्सान की फिदरत है जिसमें रोको उसके लिए ललक बनी रहती है। हमारे घर में तो एक तरह से पावन्दी ही थी फिल्मों पर । महीनों मां से पैरवी करती तब कहीं जाकर मां पिताजी से कहती बच्चे सिनेमा जाने की जिद्द कर रहे हैं। हां,एक बात अच्छी थी पिताजी कभी मना नहीं करते थे। वह पैसे टिकट के देने के साथ खाने (गोलगप्पे ) के भी पैसे दे दिया करते थे।
मुझे अच्छी तरह याद है फिल्म का नाम, कुछ बातें ,घटना, ऐसी होती जो आप कभी नहीं भूलते हो । हमारे यादों की पिटारे में बन्दर हो जाती है सदा के लिए। यह अच्छी हो या बुरी भुलाना चाहकर भी बुलाई नहीं जाती। याद रहे क्यों नहीं मेरे ज़िन्दगी की पहली फिल्म थी ,नाम था झूक गया आसमान । जी हां सही याद है , और रहे भी क्यों नहीं याद इससे पहले तो हमने सम्पूर्ण रामायण, सती अनुसुइया, टाईप फिल्में ही देखी थी।
मां ने भाईजी को चलने को कहा , उन्होंने जाने से मना कर दी। जाते ही क्यों ? एक अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखना सीटी वीटी बजाना और एक अपनी मां-बहनों बहन के साथ देखना कितना अंतर है ।भाईजी को मना करते सुना तो दिल की धड़कन बढ़ गई, कहीं मां कैंसिल न कर दें और हमारे सपने अधूरे न रह जाए। हमारे मुझे कहनी पर रही , यह सपना मेरे अकेले का नहीं हम तीनों बहनों का था।
खैर ! ऐसा नहीं हुआ मां ने हमें इतरा कर दी शाम के शो में पिक्चर देखने चलनी है, सब चार बजे तैयार हो जाना। इतना सुनते मनमोर नाच उठा , लग रहा अब चार बजेगी । इंतजार की घड़ियां बड़ी लम्बी होती है, किस बेचैनी से चार बजने का इंतजार किया याद है, लगता है फिर पूरी जिन्दगी इतनी बेसब्री से कभी किसी का इंतजार नहीं किया।
चार बजे नये कपड़ो में पूरे फैशन के साथ तीनों बहन और मां चले अपनी मंजिल की ओर। नियम यह हम चार थे दो रिक्शे लेने थे लेकिन पैसे बचाने के चक्कर में मां ने रिक्शेवाले को कहा-- तीन आदमी तो बैठता ही है , छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए यह तो बच्ची है इसे गोद में रख लूंगी, जिसे मां बच्ची कह रही थी वह मात्र आठ साल की थी। वह बेचारा रिक्शावाला भी क्या करता , पता न दूसरी सवारी मिले न मिले , तैयार हो गया। अब हमें रिक्शे में इस तरह एडजस्ट करने थे कि सब आ जाए ।बड़ी मुस्सकत से हमलोग रिक्शे में ठूंसे गए।
रिक्शे से रूपाश्री सिनेमा पहुंचें। अब टिकट लेनी थी , मां ने छोटी बहन की उम्र पांच साल बताकर उसकी टिकट के पैसे बचा लिए।
सिनेमा हाल में हीरों- हिरोईन की पोस्टर लगे थे, मां जबतक टिकट के लाईन में रही हम सभी पोस्टर इन्ज्वाए करते रहे । यहभी अच्छा है हाल में पोस्टर लगे होते, उसे जमकर देखो तो लगता पैसे वसूल हो गए। मुझे प्रचार देखने की आदत सी हो गई है आज भी कुछ देखूं तो प्रचार नहीं छोड़ती, प्रचार देखने का आनंद ही कुछ ओर होता है। अगर हाल में पहुचों और प्रचार निकल गए या कास्टिंग निकल गई तो दिल बूझ जाता है लगता है पैसे बर्बाद हो गए।
खैर पोस्टर देखने से लेकर कास्टिंग तक कुछ भी नही छूटा। बड़े मजे लेकर फिल्में देखी जा रही थी, परेशानी एक ही थी छोटी बहन वाली, टिकट नहीं होने की वजह से वह एक गोद से दूसरे गोद में बैठती, जिसके पास रहती उसे शारिरीक मानविक दोनों दर्द सहने पड़ते।
मध्यान्तर तक सबकुछ मजे में चला , उसके बाद बिजली चली गई। बिजली का आना - जाना लगा ही रहता है, पब्लिक इसका अभ्यस्त थी, यह हम भारतीयों विशेष गुण है हम परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं। सब चुपचाप अपनी जगह पर बैठें थे, हांलांकि के कर्मचारी कार्यरत से रोशनी कर रहे थे ,साथ ही लोगों के सवालों का जवाब भी दे रहे थे।लोग पूछते और बार-बार बार उनका ज़बाब होता कोशिश कर रहे हैं। औरों का तो नहीं पता मैं अपना बताती हूं ,उस दिन सबसै ज्यादा खुदा को याद किया ,ढेरों मन्नतें मांगी ,लेकिन मेरी दुआ कबूल नहीं हुई । जेनेरेटर को न ठीक होना था न हुआ। सिनेमा हाल के मालिक ने एनाउन्स किया --आप सब अपना पैसा वापस ले लें।
सभी फिर से लाईन में लगकर अपना पैसा लेते और अपने घर जाते । मां भी पैसा लेकर आ गई । उन्हें दुख था क्यों छोटी का टिकट नहीं दिया ,जब पैसे लौट ही जानी थी ,तो मुफ्त में पैर तोड़वाने। मुझे दर्द था फिल्म अधूरी रह गई ,कल विद्यालय में सहेलियों को कैसे कहानी सुनाकर उनपर अपना रोड गांठ पाऊंगी।
इस प्रकार मेरी पहली फिल्म की कहानी मुझे आधी - अधूरी ही सही आजतक याद है,शायद ताउम्र याद रहे...झूट गया आसमान
मुझे अच्छी तरह याद है फिल्म का नाम, कुछ बातें ,घटना, ऐसी होती जो आप कभी नहीं भूलते हो । हमारे यादों की पिटारे में बन्दर हो जाती है सदा के लिए। यह अच्छी हो या बुरी भुलाना चाहकर भी बुलाई नहीं जाती। याद रहे क्यों नहीं मेरे ज़िन्दगी की पहली फिल्म थी ,नाम था झूक गया आसमान । जी हां सही याद है , और रहे भी क्यों नहीं याद इससे पहले तो हमने सम्पूर्ण रामायण, सती अनुसुइया, टाईप फिल्में ही देखी थी।
मां ने भाईजी को चलने को कहा , उन्होंने जाने से मना कर दी। जाते ही क्यों ? एक अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखना सीटी वीटी बजाना और एक अपनी मां-बहनों बहन के साथ देखना कितना अंतर है ।भाईजी को मना करते सुना तो दिल की धड़कन बढ़ गई, कहीं मां कैंसिल न कर दें और हमारे सपने अधूरे न रह जाए। हमारे मुझे कहनी पर रही , यह सपना मेरे अकेले का नहीं हम तीनों बहनों का था।
खैर ! ऐसा नहीं हुआ मां ने हमें इतरा कर दी शाम के शो में पिक्चर देखने चलनी है, सब चार बजे तैयार हो जाना। इतना सुनते मनमोर नाच उठा , लग रहा अब चार बजेगी । इंतजार की घड़ियां बड़ी लम्बी होती है, किस बेचैनी से चार बजने का इंतजार किया याद है, लगता है फिर पूरी जिन्दगी इतनी बेसब्री से कभी किसी का इंतजार नहीं किया।
चार बजे नये कपड़ो में पूरे फैशन के साथ तीनों बहन और मां चले अपनी मंजिल की ओर। नियम यह हम चार थे दो रिक्शे लेने थे लेकिन पैसे बचाने के चक्कर में मां ने रिक्शेवाले को कहा-- तीन आदमी तो बैठता ही है , छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए यह तो बच्ची है इसे गोद में रख लूंगी, जिसे मां बच्ची कह रही थी वह मात्र आठ साल की थी। वह बेचारा रिक्शावाला भी क्या करता , पता न दूसरी सवारी मिले न मिले , तैयार हो गया। अब हमें रिक्शे में इस तरह एडजस्ट करने थे कि सब आ जाए ।बड़ी मुस्सकत से हमलोग रिक्शे में ठूंसे गए।
रिक्शे से रूपाश्री सिनेमा पहुंचें। अब टिकट लेनी थी , मां ने छोटी बहन की उम्र पांच साल बताकर उसकी टिकट के पैसे बचा लिए।
सिनेमा हाल में हीरों- हिरोईन की पोस्टर लगे थे, मां जबतक टिकट के लाईन में रही हम सभी पोस्टर इन्ज्वाए करते रहे । यहभी अच्छा है हाल में पोस्टर लगे होते, उसे जमकर देखो तो लगता पैसे वसूल हो गए। मुझे प्रचार देखने की आदत सी हो गई है आज भी कुछ देखूं तो प्रचार नहीं छोड़ती, प्रचार देखने का आनंद ही कुछ ओर होता है। अगर हाल में पहुचों और प्रचार निकल गए या कास्टिंग निकल गई तो दिल बूझ जाता है लगता है पैसे बर्बाद हो गए।
खैर पोस्टर देखने से लेकर कास्टिंग तक कुछ भी नही छूटा। बड़े मजे लेकर फिल्में देखी जा रही थी, परेशानी एक ही थी छोटी बहन वाली, टिकट नहीं होने की वजह से वह एक गोद से दूसरे गोद में बैठती, जिसके पास रहती उसे शारिरीक मानविक दोनों दर्द सहने पड़ते।
मध्यान्तर तक सबकुछ मजे में चला , उसके बाद बिजली चली गई। बिजली का आना - जाना लगा ही रहता है, पब्लिक इसका अभ्यस्त थी, यह हम भारतीयों विशेष गुण है हम परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं। सब चुपचाप अपनी जगह पर बैठें थे, हांलांकि के कर्मचारी कार्यरत से रोशनी कर रहे थे ,साथ ही लोगों के सवालों का जवाब भी दे रहे थे।लोग पूछते और बार-बार बार उनका ज़बाब होता कोशिश कर रहे हैं। औरों का तो नहीं पता मैं अपना बताती हूं ,उस दिन सबसै ज्यादा खुदा को याद किया ,ढेरों मन्नतें मांगी ,लेकिन मेरी दुआ कबूल नहीं हुई । जेनेरेटर को न ठीक होना था न हुआ। सिनेमा हाल के मालिक ने एनाउन्स किया --आप सब अपना पैसा वापस ले लें।
सभी फिर से लाईन में लगकर अपना पैसा लेते और अपने घर जाते । मां भी पैसा लेकर आ गई । उन्हें दुख था क्यों छोटी का टिकट नहीं दिया ,जब पैसे लौट ही जानी थी ,तो मुफ्त में पैर तोड़वाने। मुझे दर्द था फिल्म अधूरी रह गई ,कल विद्यालय में सहेलियों को कैसे कहानी सुनाकर उनपर अपना रोड गांठ पाऊंगी।
इस प्रकार मेरी पहली फिल्म की कहानी मुझे आधी - अधूरी ही सही आजतक याद है,शायद ताउम्र याद रहे...झूट गया आसमान
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