आज अपने नौकरी के लिए दिए साक्षात्कार की याद आ गई। कारण कुछ भी नहीं ।अक्सर ऐसा होता है हमें कुछ पुरानी बातें याद आ जाता करती है बस वैसे ही याद आ गई। पुरानी यादें कभी खुशी दे जाती ,कभी रुला जाती है। ज़िन्दगी भर हम यादों के गिरफ्त से कहां निकल पाते। मैं बातें कर रही थी साक्षात्कार की मैंने विकर्षक के लिए आवेदन दिया था , जिसमें लिखित में सफल हो चुकी थी । यह आसान था ,आसान मेरे जैसे लोगों के लिए जिन्हें पढ़ने में आनन्द आता हो ।जी हां जिसे बचपन में घसीटकर विद्यालय ले जाया जा । है न थोड़ी अजीब सी बात । परन्तु ऐसा भी होता है जो पसंद न हो बाद में पसंद आने लगें, साथ ही जो पसंद हो उससे घृणा हो जाए। लिखित के बाद अब बारी थी साक्षत्कार देने की , यह मेरे लिए आसमान के तारे तोड़ने जैसा ही था। मन ही मन में सोचती कितना अच्छा होता जो मैं लिखित में नहीं निकलती,बच जाती इस साक्षात्कार जैसे जानलेवा परेशानी से । रात - मुझे यही चिन्ता खाएं जा रही थी ज़बाब कैसे दूंगी ? कितने लोग होंगे? मेरे रातो की निन्दा और दिन का शकून छिन गया था। समय निकल ही जाता है चाहे जैसा हो, मेरा समय भी निकलता चला गया और फिर वह मनहूस दिन जिस दिन साक्षात्कार होनी थी। सच कहूं तो मुझसे कुछ खाया नहीं गया ।
अब साक्षात्कार भवन में पहुंची, वहां मेरे जैसे लोगों की भीड़ थी। दिल को अच्छा लगा चलो मैं अकेले नहीं हूं, मेरे जैसे सैकड़ों है। एकाध ने बातें करने की कोशीय भी की लेकिन अपनी आदत तो चुप रहने की थी, हां-हू में ज़बाब देकर चुप हो जाती। बातचीत का भी एक नियम है आपको भी बोलने होते हैं ,कोई एक तरफ से तो बातें कर नहीं कर सकता। मां ले कोई बातें करना चाहे और आप चुप रहो ज़बाब न दो तो फिर वह हारकर चुप हो जाएगा। जिसे कम बोलने की आदत हो उसकी मजबूरी कोई समझता ही कहां है।
अब एक -एक कर नाम पुकारा जाने लगा , जैसे कोई अंदर से बाहर आता सभी उसे घेर लेते ।क्या हुआ ? कैसा हुआ ? क्या पूछा ? जैसे ढेरों प्रश्न ,वह भी बड़ी शान से अपनी विजय गाथा सुनाता। मैं किसी से कुछ पूछती नहीं परन्तु वर्तमान से सुन रही थी लोगों की बातों को। मैं जैसे - जैसे मेरा नंबर आ रहा था भयभीत होती जा रही थी। आखिरकार मेरा नाम भी पुकारा गया और मुझे अपने जगह से उठ कर उस काल कोठरी में जानी पड़ी।
मेरे समझ में यह बात नहीं आती जब बुलाया गया ,तो फिर यह क्यो पूछनी होती है ( क्या मैं अंदर आ सकती हूं ) , और कभी ऐसा भी सुना है कोई कह दें नहीं आप नहीं आ सकतें।
मैं ने भी बड़ी मुश्किल से अपने दिल को खड़ा करते हुए पुछा क्या मैं अंदर आ सकती हूं ,अंदर से आवाज आई -- जी हां आ जाए ।
वहां का दृश्य कुछ नहीं बहुत ही भयानक लग चार या पांच कुर्सी पर टाई - कोट पहने सारे सज्जन पुरुष बैठे थे ,उन्होंने मुझे भी बैठने के लिए कुर्सी के तरफ इशारा किया। मेरे से मेरा नाम पूछा गया, मेरे बताने के बाद नाम का अर्थ ? मैं चुप ऐसा नहीं कि मैं जानती नहीं थी ।मेरे न बोलने के दो कारण थे - पहला मेरी चुप रहने की आदत , दूसरा नाम का अर्थ । सच्चाई यही थी मुझे यह कहने में अजीब लग रहा था कि मेरे नाम का अर्थ है नयाब पत्थर ।अर्थ बताने से बेहतर चुप रहना समझ मैं चुप रही उन्हें लगा मैं नहीं जानती , आपके नाम का अर्थ है,ऐसा बेहतरीन पत्थर जो जहां लगा दिया जाए वह बहुमुल्य हो जाए। एक मैं ऐसे ही नर्वस थी मेरे नाम के अर्थ ने तो कमाल ही कर दिया। अब मेरे सामने एक एक कर प्रश्न आते जा रहे थे ,सबके ज़बाब जानते हुए भी मैं बोल नहीं पा रही थी। ऐसा लगता था मेरी जुबान पर ताले लग गए हैं। किसी ने कहा दिनकर जी की कोई कविता की दो पंक्तियां सुनाए मेरे मन में पूरी की पूरी रश्मिरथी आ गई परन्तु मैं चुप रही। अच्छा आप बताएं सुराही का पानी ठंडा क्यों होता ? चुप दिमाग कह रहा था बोलो वाष्पिकरण होंठ खुलते ही नहीं लगता था आपस में दोनों जुड़ गए हैं।मेरी चुप्पी को देखते हुए शायद लगा हो उनलोगो को मूर्ति है।अगला प्रश्न ? हां प्रश्न मेरे सामने आया अच्छा बताईए एक बटा दो और दो बंटा चार में कौन बड़ा है ? मैं चुप । लगता मेरी चुप्पी से तंग आ गए होगें । मुझे जाने की इजाजत दें दीं अच्छा अब आप जा सकती है। जाने की इजाजत मिलते ही हिम्मत आ गई जुबान के ताले खुल गए हो जैसे - धन्यवाद सर कहते हुए मैं कमरे से बाहर आ गई ।
रिजल्ट क्या मैं साक्षत्कार में असफल घोषित हुई। अब जब भी किसी को मुझसे शिकायत होती - आप बहुत बोलती है । मुझे वो दिन याद आ जाते जब नहीं बोलती थी ।सोचती हूं न बोलो तो परेशानी बोलो तो परेशानी होती लोगों को । समझ नहीं पाती कैसे बोलूं ,कितना बोलूं, कैसे नाप - तोल कर बोला जाता ? कोई समझाएगा मुझे ? नापने की तराजू कहॉ मिलेगी ? बताएगा मुझे ?
अब साक्षात्कार भवन में पहुंची, वहां मेरे जैसे लोगों की भीड़ थी। दिल को अच्छा लगा चलो मैं अकेले नहीं हूं, मेरे जैसे सैकड़ों है। एकाध ने बातें करने की कोशीय भी की लेकिन अपनी आदत तो चुप रहने की थी, हां-हू में ज़बाब देकर चुप हो जाती। बातचीत का भी एक नियम है आपको भी बोलने होते हैं ,कोई एक तरफ से तो बातें कर नहीं कर सकता। मां ले कोई बातें करना चाहे और आप चुप रहो ज़बाब न दो तो फिर वह हारकर चुप हो जाएगा। जिसे कम बोलने की आदत हो उसकी मजबूरी कोई समझता ही कहां है।
अब एक -एक कर नाम पुकारा जाने लगा , जैसे कोई अंदर से बाहर आता सभी उसे घेर लेते ।क्या हुआ ? कैसा हुआ ? क्या पूछा ? जैसे ढेरों प्रश्न ,वह भी बड़ी शान से अपनी विजय गाथा सुनाता। मैं किसी से कुछ पूछती नहीं परन्तु वर्तमान से सुन रही थी लोगों की बातों को। मैं जैसे - जैसे मेरा नंबर आ रहा था भयभीत होती जा रही थी। आखिरकार मेरा नाम भी पुकारा गया और मुझे अपने जगह से उठ कर उस काल कोठरी में जानी पड़ी।
मेरे समझ में यह बात नहीं आती जब बुलाया गया ,तो फिर यह क्यो पूछनी होती है ( क्या मैं अंदर आ सकती हूं ) , और कभी ऐसा भी सुना है कोई कह दें नहीं आप नहीं आ सकतें।
मैं ने भी बड़ी मुश्किल से अपने दिल को खड़ा करते हुए पुछा क्या मैं अंदर आ सकती हूं ,अंदर से आवाज आई -- जी हां आ जाए ।
वहां का दृश्य कुछ नहीं बहुत ही भयानक लग चार या पांच कुर्सी पर टाई - कोट पहने सारे सज्जन पुरुष बैठे थे ,उन्होंने मुझे भी बैठने के लिए कुर्सी के तरफ इशारा किया। मेरे से मेरा नाम पूछा गया, मेरे बताने के बाद नाम का अर्थ ? मैं चुप ऐसा नहीं कि मैं जानती नहीं थी ।मेरे न बोलने के दो कारण थे - पहला मेरी चुप रहने की आदत , दूसरा नाम का अर्थ । सच्चाई यही थी मुझे यह कहने में अजीब लग रहा था कि मेरे नाम का अर्थ है नयाब पत्थर ।अर्थ बताने से बेहतर चुप रहना समझ मैं चुप रही उन्हें लगा मैं नहीं जानती , आपके नाम का अर्थ है,ऐसा बेहतरीन पत्थर जो जहां लगा दिया जाए वह बहुमुल्य हो जाए। एक मैं ऐसे ही नर्वस थी मेरे नाम के अर्थ ने तो कमाल ही कर दिया। अब मेरे सामने एक एक कर प्रश्न आते जा रहे थे ,सबके ज़बाब जानते हुए भी मैं बोल नहीं पा रही थी। ऐसा लगता था मेरी जुबान पर ताले लग गए हैं। किसी ने कहा दिनकर जी की कोई कविता की दो पंक्तियां सुनाए मेरे मन में पूरी की पूरी रश्मिरथी आ गई परन्तु मैं चुप रही। अच्छा आप बताएं सुराही का पानी ठंडा क्यों होता ? चुप दिमाग कह रहा था बोलो वाष्पिकरण होंठ खुलते ही नहीं लगता था आपस में दोनों जुड़ गए हैं।मेरी चुप्पी को देखते हुए शायद लगा हो उनलोगो को मूर्ति है।अगला प्रश्न ? हां प्रश्न मेरे सामने आया अच्छा बताईए एक बटा दो और दो बंटा चार में कौन बड़ा है ? मैं चुप । लगता मेरी चुप्पी से तंग आ गए होगें । मुझे जाने की इजाजत दें दीं अच्छा अब आप जा सकती है। जाने की इजाजत मिलते ही हिम्मत आ गई जुबान के ताले खुल गए हो जैसे - धन्यवाद सर कहते हुए मैं कमरे से बाहर आ गई ।
रिजल्ट क्या मैं साक्षत्कार में असफल घोषित हुई। अब जब भी किसी को मुझसे शिकायत होती - आप बहुत बोलती है । मुझे वो दिन याद आ जाते जब नहीं बोलती थी ।सोचती हूं न बोलो तो परेशानी बोलो तो परेशानी होती लोगों को । समझ नहीं पाती कैसे बोलूं ,कितना बोलूं, कैसे नाप - तोल कर बोला जाता ? कोई समझाएगा मुझे ? नापने की तराजू कहॉ मिलेगी ? बताएगा मुझे ?
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