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घर-- भाग -- १

मैं अस्पताल में पड़ी थी। मेरे बगल वाले बेड पर एक बुजूर्ग महिला लेटी थी। दो दिन तक उससे मिलने कोई नहीं आया था।मैं आश्चर्यचकित थी। सोचती कोई तो होगा जिसने इन्हें यहां भर्ती करवाया होगा।आदतन मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पाती।उन्हें पानी की जरूरत आन पड़ी, मेरे से मुखातीब हुई बेटा पानी हैं क्या ? मैंने कहा हां मांजी देती हूं।बस यही से एक रिश्ता सा बन गया मां और बेटी का।वह धीरे-धीरे मेरे से खुलने लगी।उन्होंने अपनी जिन्दगी की पुस्तक खोल कर रख दीं।
बेटे मेरे पति बैंक में अॉफिसर थे।हम तीन थे हम दोनों प्राणी और मेरा बेटा सुबोध। सुबोध को भगवान ने अपने हाथों से तराशा था,देखने में राजकुमार सा,पढ़ने में वह हमेशा फस्ट आता तो खेलने में चैम्पियन।मेडल की तो भरमार हो गई थी।पूरी जिन्दगी एशो-आराम में गुजरी। फिर न जाने किसकी नज़र लगी गई और डियूटी से आते समय सुबोध के पापा का एक्सिडेन्ट हो गया।मेरे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट गया।सुबोध इन्जिनियरीग की पढ़ाई कर रहा था।मैंने किसी तरह खुद को सम्भाला।लाख परेशाशानी आई लेकिन सुबोध को कोई खबर तक नहीं लगने दी हमने।पैसे की कमी शुरु में तो खान नहीं हुई लेकिन बाद में पैसे की जरुरत बढ़ती चली गई। सुबोध के कॉलेज के फीस, पुस्तकें और हाॅस्टल के खर्च ने मुझे अपने गहने भी बेचने पर मजबूर कर दिए। बेटा मेरे गहने बिकते गए इस उम्मीद में कि अब सुबोध नौकरी करेगा फिर मेरी जिन्दगी पहले जैसे खुशहाल हो जाएगी। मेरे सोचने के मुताबिक ही सब कुछ चल रहा था, पढ़ाई समाप्त होते ही सुबोध को अच्छी सी नौकरी मिल गई। अब फिर से मैं पहले जैसा सबकुछ महसूस कर रही थी। उठते ही चाय नाश्ते में लग जाती। टीफिन तैयार करती ,फर्क इतना सा था पहले उसके पापा के लिए टिफिन बनाती थी अब सुबोध के लिए। कहते हैं अच्छे बुरे दिन आते जाते रहते कभी भी समय एक समान नहीं रहता। मेरे भी अच्छे दिन जानेवाले थे, सुबोध को कम्पनी की ओर से दूसरे देश में जाने का आदेश मिला। मुझे याद है उस रात हम मां बेटे में किसी को नींद नहीं आ रही थी। सुबोध मुझे बच्चों जैसा समझा रहा था, मां अब दूरी रह ही कहां गई है।मैं रोज दिन फ़ोन से बात करूंगा। साल में एकबार आ भी जाउंगा। मैं थी कि कितना भी दिल को समझाती दिल और घबराता। सुबोध ऐसा नहीं हो सकता तुम कोई और नौकरी कर लो,अपने ही देश में रहो। सुधीर का ज़बाब था हां हो सकता है मां लेकिन यहां कोई कैरियर नहीं दिखता।
मैंने अपने सीने पर पत्थर रखकर उसके उज्जवल भविष्य के लिए उसे जाने की अनुमति दे दी।
समय पंख लगाकर निकलता रहा। एक दिन सुबोध सात समुन्द्र पार चला गया। मैं अकेली रह गई जिस टेलीविजन को देखने का समय नहीं मिलता था अब ढेरों समय है उसे देखने की इच्छा नहीं होती। कोई काम में मन नहीं लगता, हर घड़ी रात का इंतज़ार रहता। सुबोध भी हर रात फोन किया करता, फोन से बातें समाप्त होते फिर रात आने का इंतजार शुरु कर देती,आज भूल गई कल एक बातें करनी हैं,वो बातें करनी हैं।
ऐसैं ही समय बीतता रहा, फिर सुबोध ने बताया मां मैं आ रहा हूं। अब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। सारे घर ,बाथरूम,बैठक की सफाई शुरू कर दी। कैसे एक महीने निकल गए पता ही न चला। बस ऐसे ही जिन्दगी चलती रही।फोन आते रहे पैसे आते रहे, साल में एक बार सुबोध आता फिर चला जाता। इस बार जब उसका आना हुआ तो मुझे उसे शादी के लिए लड़की पसंद करवाने थे। मैं इसकी चर्चा करने के लिए कुछ तस्वीर लेकर उसके पास गई। मैंने जैसे ही फोटो आगे बढ़ाई ,सुधीर का चेहरा उतर गया। थोड़ी सी झिझक के साथ उसने कहा मां मैं आपसे बात करने ही वाला था मां मैंने शादी कर ली है। मैं कुछ बोल न सकी पर सच कहूं बहुत चोट पहुंचा मन को,इतना दर्द इतनी बेचैनी में रात काटी मैंने। सबेरे उठने पर मैंने सुधीर से कहा चलो शादी कर ली ,बहुत को तो लेते आते। इतना सुनते ही सुधीर ने अपने मोबाईल पर बहुत की तस्वीर दिखाई।सच कहुं बेटे मैं चाहे जितनी भी कोशीश कर लेती इतनी खूबसुरत बहुत नहीं ढूंढ पाती। बहु सी परी लगती है, था कर मन खुश हो गया।
सुधीर सलाना रूटीन पूरा करने आता रहा, हर बार बहुत के नहीं आने का कोई न कोई नया बहाना सुनाता रहा।
इस बार जब उसका आना हुआ, फिर अकेले। इस बार वह कोई बहाना नहीं बनाया सीधे - सीधे अपनी बात रख दी मां बहु तुम्हारी तुमको ही वहां बुला रही है, वह मां बनने वाली है और तुम दादी बनने वाली हो....

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