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विद्यालय की यादें--२

मैं पढ़ा रही थी एटेन्डेन्ट ने आकर आदेश सुनाया प्रिसपल आपको बुला रहे हैं। मैं सीढ़ी से उतरते सोचती जा रही थी आखिर क्या बात हो सकती है। सोचते-सोचते मैं अॉफिस में पहुंची। वहां एक सज्जन मौजूद थे।प्रिसपल ने मेरी ओर एक कॉपी बढ़ाया,मैडम यह क्या है? मैंने कॉपी देखी, और अपनी गलती समझ में आ गई। कॉपी के बचें पन्नों को मैं काटी नहीं थी, जिसका फायदा उठाकर सर जी ने बच्चें से लिखवा दिया था। मेरे समझ में आ गया लेकिन मेरे पास कोई सबूत नहीं था। मैंने सॉरी बोला और बचे प्रश्नो के नम्बर दे दिए। अजीब लगता है जब वगैर गलती आप ग़लत साबित कर दिए जाते हैं। मैं कई दिनों तक अपने आप में घुलती रही। किसी काम में मन नहीं लगता। कहते हैं समय सब घाव भर देता। मैं भी सब भूल गई, इतने में एक वाकया हुआ।
मैं खाली पीरियड में स्टाफ रूम में बैठी थी,एक आवाज सुनकर चौंक उठी। मैं अन्दर आ सकता हूं मैम ? अरे भुवन तुम ! हां आ जाओ। वह आ तो गया था , लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहा था। बात मुझे ही शुरू करनी पड़ी, तो सुनाओ क्या बात है ? वह शरमाते हुए बोला मैम सर ने मुझसे कॉपी में लिखवाया था। उन्होंने कहा यह अच्छा हुआ, मैम ने आगे कॉपी को काटा नहीं । तुम लिख लो अपने पापा से इसकी चर्चा नहीं करना, उन्हें दिखाना कि मैम ने नम्बर नहीं दिए हैं। वह कॉपी लेकर प्रिसपल से मिले, तुम्हे  नम्बर मिल जाएगा। मैम,  मैं प्रिसपल सर को भी यह सब बताने को तैयार हूं।
भुवन की बातें सुनकर मैं हक्का बक्का रह गई। ऐसा नहीं कि मुझे अंदाजा नहीं था। पर मैं सोचने पर मजबूर हों गई कैसे इन्सान का ज़मीर उसे धिक्कारता है, जब वह गलत होता है।
मैंने कहा नहीं भुवन इसकी कोई जरूरत नहीं, सर तुम पर नाराज़ हो जाएगे। जो हुआ उसे भूल जाओ, बोर्ड का एक्जाम है मन लगाकर तैयारी करो।
बात यहीं समाप्त हो गई। सोचती हूं मुझे भुवन को प्रिसपल के पास जाने देनी चाहिए थी, क्योंकि सर ने मुझे परेशान करने की नई नई तरकीब निकालते रहे।

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