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सफ़र भाग-३

सड़क के बीचों - बीच तालाब बना था। कच्ची सड़क बरसात के बाद चलने लायक रहती कहा है। अब पतिदेव का हिम्मत ज़बाब दे दिया, बोलें अब कुछ नहीं किया जा सकता माना एंबेसेडर गाड़ी हैं लेकिन इस गढ़े को पार करना नामुमकिन है। मुसीबत तो यह है कि सड़क इतनी पतली है पीछे भी मुड़ा नहीं जा सकता। तो अब क्या यही रहने पड़ेंगे ? दूसरा उपाय क्या है? ज़बाब के जगह उन्होंने प्रश्न ही मेरी ओर उछाला। हम-दोनों चुपचाप बैठे थे, कोई कुछ बोल नहीं रहा था या यो कहें बोलने को कुछ नहीं था।
करीब आधे घंटे हुए होंगे जिधर से हमलोग आए थे , उधर से दो साईकिल पर चार नौजवान आते दिखे, खुशी तो बहुत हुई, पर गढ़े को देखकर लगा कोई कुछ नहीं कर सकता। इतने में उन्हें अपने करीब आते देख मन में आशंका हुई, कहीं ऐ हमें लूटने तो नहीं आ रहे हैं।वे सब शीशे से झांकते हुए बोले, अरे छोटे -छोटे बच्चे भी हैं, पैदल तीन चार किलोमीटर नहीं जा सकते। अब पतिदेव ने चुप्पी तोड़ी हां समझ नहीं आ रहा क्या करूं? आपको जाना कहां है, एक ने पूछा। मुखिया जी का नाम सुनते वे सब अपनापन दिखाते हुए बोले कोशिश करते हैं नहीं तो बच्चे को साईकिल पर बिठाकर ले चलेंगे।
साईकिल किनारे लगाकर खेत से मिट्टी का बड़ा-बड़ा ढेला लाकर गढ़े में डालने लगें, उनको ऐसा करते देख पतिदेव भी साथ देने चले गए। मैं गाड़ी में बैठ-बैठे सोच रही थी उपर वाला ‌‌‌कितना ख्याल रखते हैं अपने बच्चों का,खुद नहीं आ पाते तो फरिश्तों को भेज देते हैं।
चार वे लोग और पतिदेव ने मिट्टी भर दिया सड़क पर। अब तक मैं गाड़ी से नीचे आ गई थी। इस बीच उनलोगो ने एक रिश्ते जोड़ लिया था, आप क्यो उतर गई बुआ ? मैंने कहा गाड़ी को कुछ हल्का करने के लिए। सबने धक्का देकर गाड़ी को पार कराया।
मैं और पतिदेव गाड़ी में आ गए। मैंने कहा घर नजदीक हो तो बुआ से मिलने आना। वे सब सहमति में सिर हिलाया,प्रणाम कर चले। हमारी गाड़ी भी अपने गंतव्य की ओर चली।
ऐसा था अपना सफ़र जो यादगार बन गया।

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