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नाना घर-- भाग१

बचपन के सबसे सुनहरे दिन ननिहाल के होते। बचपन की यादों में नाना के घर जाने की यादें जरुर शामिल होती है। मुझे भी अपने नाना घर की यादें यहां खींच लाई है। मामाजी आकर निमंत्रण दे गए थे। ठीक से याद नहीं सुअवसर क्या था। न उनदिनो मोबाइल न थे। मां खुश थी और खुश थे मैं और मेरी छोटी बहन। इस में मां , पिताजी और। हम दोनों बहनों ही जा रहें थे। यात्रा बस से थी, ट्रेन वहां तक नहीं जाती थी। मामाजी ने बता रखा था, बस से घर तक जाने के लिए हाथी आ जाएगा।बैठना तो दूर की बात हमने हाथी देखी तक न थी। हमने किताब में 🐘 देखे थे। मन में तरह-तरह के विचार आते थे। छोटी सी दूरी भी कट नहीं रही थी। जाने कब बस से उतरेगेउ ? समय जैसे भी हो अच्छे या खड़ाब गुजर ही जाते हैं। हम सब आखिर बस से नीचे आ गए। मेरी नजरें 🐘 को डेढ़ रही थी। वह समय भी आ गया जब एक आदमी मेरे पिताजी के पास आकर रुका और हमारे सामान उठा लिया।हम सभी उसके पीछे-पीछे जाते हुए स्टेशन से बाहर आए। सामने हाथी दिखाई दिया, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं। ज़िन्दगी में पहली बार 🐘 को देखा तो देखते ही रह गए। दोनों बहनों ने बहुत सी बातें की प्रोब्लेम भी डिस्कस किया, इसपर चढ़ेंगे कैसे, यह तो बहुत बड़ा है। कितना सजा है, गले में बड़ी-बड़ी मोतियों की माला पीठ पर गद्दे। सूंड कितनी बड़ी और दांत बहुत सी बातों में पता ही नहीं चला एक पालकी भी आई हुई है, जिसमें मां के साथ हमें भी जाने हैं।महावत ने कहा बच्चें पालकी में बैठकर जाएंगे। मेरी छोटी बहन ने हाथी पर चढ़कर ज़िद कर ली। मैं तो आदतन चुप ही रहती थी, हो चुप रहने के अपने नियम का पालन किया। पिताजी ने कहा चलने दो बच्चे हाथी पर चढ़ना चाहते हैं। महावत बोला लड़कियों को हाथी पर नहीं चढ़ना चाहिए। मन ही मन मुझे गुस्सा आ रहा था। समझ नहीं पा रही लड़कियों को मना कयो है क्या सब मनाही केवल लड़कियों के लिए है। मन बैठा जा रहा था,हाथी पर बैठने की योजना विफल होती नज़र आ रही थी। पिताजी ने कहा अरे ऐसी कोई बात नहीं चढ़ने दो इनको। अब फैसला अपने पक्ष में सुन खुख़ु हुई। मां मैके आ चुकि थी।कहते हैं मैके में आकर महिलाओं की हिम्मत दोगुनी हो जाती है। उन्होंने महावत को आदेश दिया छोड़ो इन्होंने  ( पिताजी) माथा चढा कर रखा है,जा जा दो हाथी पर। फिर क्या था हमें सहारा देकर हाथी पर चढ़ाया गया। बैठे हाथी भी काफी उचे होते हैं। जैसे ही हाथी उठा हमारी तो जान ही निकल गई। सच कहूं जिस आनन्द को सोचा था बिल्कुल भी नहीं आया। वह तो पिताजी साथ थे,वरना डर से जान ही निकल जाती। इस तरह भयानक यात्रा घर जाकर समाप्त हुई। घर पहुंच कर बहुत आव भगत हुए। होता भी क्यों नहीं आखिर हम भूतपूर्व जमींदार के अतिथि ठहरे। जमींदारी चली गई रूआव थोड़े ना गया। आलिशान घर, कदम कदम पर नौकर चाकर। दरवाजे पर ठाकुरवाड़ी। अजीब नजारा खाना बनाने को महाराज और खाने में हर दिन सोलह व्यंजन। पापा के यहां तो मां और चाची को ही खाना बनाने पड़ते थे। सब्जी होती थी, सब्जियां नहीं।
आज बच्चें कैडवरीज खाते हमारे समय में खट्टी मीठी लमनचूस वह भी एक या दो मिलती थी। यहां तो हर कोई पूछता ही रहता लेमन चूस चाहिए। जो मां कहा करती थी, नहाने के बाद कपड़े धो लिया करो,उनकी शख्त हिदायत दी कपड़े मत धोना सब सोचेंगे शायद वहां (पापाजी के यहा) कोई नौकर नहीं है। बड़ी मजेदार थे, अभी भी याद है पोखड़ा के पास बड़हर के पेड़ पर से कितने फल खाए थे। यह शायद कटहल के परिवार से ताल्लुक रखता होगा। दुबारे इस फल को खाने का मौका नहीं मिला।
महीनों रहने के बाद अब लौटने का समय करीब आ गया। घर पर ढेरों कपड़े के थान और साड़ियों के साथ एक आदमी आया। अपने पसंदीदा कपड़े खरीदे गए। दर्जी कपड़े सिलकर ले आया। अब हमारे विदाई का समय आ गया। इस बार हम पालकी में बैठकर मां के साथ बस स्टैंड आए।  हमारे साथ मामाजी थे, पिताजी तो कुछ दिन रुककर ही णले गए थे।
एक बार फिर नाना घर जाने का मौका मिला, लेकिन अब तक सब कुछ बदल गया था। बदलाव भी ऐसा जो हमें हिलाकर रख दिया।
समय बीतता गया। मेरी शादी हो गई थी। मैं मैके में थी । मामाजी आकर निमंत्रण दिया । मामाजी के बेटे की शादी थी। मां से गुपचुप कुछ बातें हुई। एक तो मुझे जरूर लेकर आने की बात थी। दूसरी क्या बात थी नहीं पता मां केवल सहमति में सिर हिला रही थी। मेरे कान में बस इतना आया वकील साहब को ( पिताजी) को पता नहीं चलनी चाहिए???

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