रेलगाड़ी से यात्रा करने का आनंद ही कुछ और है। कभी - कभी यह यादगार बनकर रह जाती है।ऐसी ही एक यात्रा अपनी भी रही।
हमें अपने बच्चों के नामांकन के लिए बनारस जाने थे। दो परिवारों को डेसटिडे एक ही थी। परिवारों में संख्या भी बराबर यानि पति-पत्नी और दो-दो बच्चे। मध्यमवर्गीय परिवारों की स्थिति एक जैसी होती है। हम चार लोगों की AC में टिकट नहीं ले सकते थे।हमलोगो हम ने साथ- साथ चलने का विचार किया।इधर से जाने का समय निश्चित था, टिकट स्लिपर का ले लिया गया लेकिन लौटने की तिथि अनिश्चित थी। बच्चों के टेस्ट के बाद बाबा विश्वनाथ के दर्शन के साथ और भी जगह घूमने का इरादा था। लौटने की टिकट की व्यवस्था नहीं की गई। दोनों परिवार से दस- दस हजार रुपए जमा किए गए।खर्चो के हिसाब रखने की कोई जरूरत ही नहीं थी। परिवार में सदस्यों की संख्या एक थी, एक जैसी खाने रहने की व्यवस्था थी।
रहने में होटल महंगा और धर्मशाला सस्ते थे। हमने अपने जेब पर अधिक बोझ न देते हुए धर्मशाला में ही रहने का निर्णय लिया। धर्मशाला काफी साफ-सुथरा था। सबसे अच्छी बात कम पैसों में मनपसंद खाना। चावल, रोटी, पापर घी डालकर दाल वह भी लकड़ी के पीठे पर बैठ कर। बहुत मजा आया, गरम- रोटियां घी लगाकर।
दूसरे दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के और संकट मोचन के दर्शन करने चले। यहां एक अजीब वाकया हुआ। प्रसाद के लिए लड्डू खरीदकर जैसे ही मंदिर परिसर में चली,एकाएक एक झटका सा लगा । कुछ समझ सकूं इससे पहले देखा लड्डू मेरे हाथ से झपट कर एक बंदर छत पर भाग गया और मज़े से घी के लड्डू इन्ज्वाए कर रहा है। सभी हसंने लगे, मुझे तो गुस्सा आ रहा था,बन्द पर और उसकी एक्टिविटी पर खुश होने वाले पर।भला इसमें हंसने की क्या बात है। मेरे जैसे लोगों को छोटी छोटी बातों पर भी गुस्सा आ जाता है। इसीलिए ऐसे लोगों को नकचढी या शौर्ट टेम्पर कहते हैं। मेरे पतिदेव भी हंसने वालों में थे। अब मुझसे प्रसाद खरीदकर लाने को कहना आग में घी डालने के समान होगा, ऐसा सोचकर खुद ही ख़रीद कर लाए।मेरा मूड शायद ठीक न होता यदि मंदिर से लौटते समय मेरे साथ वाले परिवार जिन्हें बड़ी हंसी आ रही थी, उनके प्रसाद भी हनुमानजी नहीं लूट लिया होता। जब मेरे प्रसाद लूटे थे तो कहा गया हनुमानजी खुद आकर प्रसाद ले लिए।अब बंदर कहकर कोस रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था घंटे भर पहले जो हनुमानजी थे अब बंदर कैसे हो गए ?
मनुष्य की भी अजीब नियति है दूसरों को गिरते देख हंसी आती है और अपने गीरने पर किसी को हंसते देख कूटने को जी चाहता है। अब हमसभी घूमते घामते शाम आठ बजे धर्मशाला पहुंचे। खाना बनाने थे नहीं पीठे पर बैठ छककर ( भरपेट) भोजन करते हुए कल का प्रोग्राम बनाया गया। कल चार बजे उठकर गंगाजी में स्नान कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करना है। मंदिर में भीड़ बहुत होती इसलिए चार मतलब चार।सभ स ने सहमति जताई और सबेरे जगने के दर्शन हम सोने चले.....
हमें अपने बच्चों के नामांकन के लिए बनारस जाने थे। दो परिवारों को डेसटिडे एक ही थी। परिवारों में संख्या भी बराबर यानि पति-पत्नी और दो-दो बच्चे। मध्यमवर्गीय परिवारों की स्थिति एक जैसी होती है। हम चार लोगों की AC में टिकट नहीं ले सकते थे।हमलोगो हम ने साथ- साथ चलने का विचार किया।इधर से जाने का समय निश्चित था, टिकट स्लिपर का ले लिया गया लेकिन लौटने की तिथि अनिश्चित थी। बच्चों के टेस्ट के बाद बाबा विश्वनाथ के दर्शन के साथ और भी जगह घूमने का इरादा था। लौटने की टिकट की व्यवस्था नहीं की गई। दोनों परिवार से दस- दस हजार रुपए जमा किए गए।खर्चो के हिसाब रखने की कोई जरूरत ही नहीं थी। परिवार में सदस्यों की संख्या एक थी, एक जैसी खाने रहने की व्यवस्था थी।
रहने में होटल महंगा और धर्मशाला सस्ते थे। हमने अपने जेब पर अधिक बोझ न देते हुए धर्मशाला में ही रहने का निर्णय लिया। धर्मशाला काफी साफ-सुथरा था। सबसे अच्छी बात कम पैसों में मनपसंद खाना। चावल, रोटी, पापर घी डालकर दाल वह भी लकड़ी के पीठे पर बैठ कर। बहुत मजा आया, गरम- रोटियां घी लगाकर।
दूसरे दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के और संकट मोचन के दर्शन करने चले। यहां एक अजीब वाकया हुआ। प्रसाद के लिए लड्डू खरीदकर जैसे ही मंदिर परिसर में चली,एकाएक एक झटका सा लगा । कुछ समझ सकूं इससे पहले देखा लड्डू मेरे हाथ से झपट कर एक बंदर छत पर भाग गया और मज़े से घी के लड्डू इन्ज्वाए कर रहा है। सभी हसंने लगे, मुझे तो गुस्सा आ रहा था,बन्द पर और उसकी एक्टिविटी पर खुश होने वाले पर।भला इसमें हंसने की क्या बात है। मेरे जैसे लोगों को छोटी छोटी बातों पर भी गुस्सा आ जाता है। इसीलिए ऐसे लोगों को नकचढी या शौर्ट टेम्पर कहते हैं। मेरे पतिदेव भी हंसने वालों में थे। अब मुझसे प्रसाद खरीदकर लाने को कहना आग में घी डालने के समान होगा, ऐसा सोचकर खुद ही ख़रीद कर लाए।मेरा मूड शायद ठीक न होता यदि मंदिर से लौटते समय मेरे साथ वाले परिवार जिन्हें बड़ी हंसी आ रही थी, उनके प्रसाद भी हनुमानजी नहीं लूट लिया होता। जब मेरे प्रसाद लूटे थे तो कहा गया हनुमानजी खुद आकर प्रसाद ले लिए।अब बंदर कहकर कोस रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था घंटे भर पहले जो हनुमानजी थे अब बंदर कैसे हो गए ?
मनुष्य की भी अजीब नियति है दूसरों को गिरते देख हंसी आती है और अपने गीरने पर किसी को हंसते देख कूटने को जी चाहता है। अब हमसभी घूमते घामते शाम आठ बजे धर्मशाला पहुंचे। खाना बनाने थे नहीं पीठे पर बैठ छककर ( भरपेट) भोजन करते हुए कल का प्रोग्राम बनाया गया। कल चार बजे उठकर गंगाजी में स्नान कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करना है। मंदिर में भीड़ बहुत होती इसलिए चार मतलब चार।सभ स ने सहमति जताई और सबेरे जगने के दर्शन हम सोने चले.....
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