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एकबार-आ-जाओ - दो

ख़त में सबकुछ लिखा था कहां आना है, कब आना है, सबकुछ तो था। मेरे दिल और दिमाग किसी एक निष्कर्ष पर पहुंच ही नहीं पा रहे थे। दिमाग का सोचना था क्यो अब मेरी याद ? आज का मानव बहुत शंकालु हों गया है। किसी ने पूछा -- कैसे हो ? दिमाग में पहले आ जाता है इसे मुझसे जरुर कोई काम होगा। 
दिल से आवाज आती ,जब बुलाया है तो जाकर मिलना चाहिए। क्या पता कौन सी बात ने उसे मुझसे मिलने पर मजबूर कर दिया होगा। आज का इंसान अपने आप में इतना व्यस्त हैं कि किसी और के लिए समय ही कहां है? अपने परिवार में व्यस्त होने के कारण एक शहर में होते हुए भी नहीं मिल पाया होगा। 
आखिरकार मैं ने जाने का निर्णय ले लिया या ऐसा कहूं तो सही होगा, मेरे दिल में एकबार उससे मिलने की इच्छा प्रबल हो उठी।
मैं घर से निकल कर एक आटो रिक्शा से समुद्र के किनारे पहुंच गई। वहां चादर बिछा कर बैठ गई। कभी समुद्र की विशालता को देखती तो कभी उन लहरों को जो मेरे चादर तक पहुंचते- पहुंचते लौट जाती थी। इंतजार की घड़ी बहुत कष्टकर होती है। सुबह से दोपहर होने को आई । भूख लगी तो यह सोचकर कुछ खाया नहीं , गौतम के आने पर साथ ही खा लूंगी। अपने मन को बहलाने के लिए बच्चों को देखते रही जो समुद्र तट पर उछल कूद रहे थे। बच्चों को देखते - देखते न जाने कब मैं बचपन में पहुच गई।
 घर से स्कूल आते - जाते गौतम से कैसे लड़ते हुए जाती थी। वह भी तो बहुत मारता था, बाल खींच कर भाग जाता था। हां एक्जाम में मुझे जो नहीं आता ,टीचर से आंखें बचाकर चोरी भी करवा दैता था। 
यह अलग बात थी कि अपना धौस दिखाने के लिए घर पर सबको बता देता था। बचपन की दोस्ती कैसे प्यार में बदल गई पता ही नहीं चला। अब तो ऐसा हाल था हम दोनों एक-दूसरे के वगैर रह ही नहीं सकते थे। एक-दूसरे से मिलने का बहाना ढूंढ़ा करते थे।
                           फिर तो समय ने करवट बदली और हम दोनों एक-दूसरे से सदा के लिए अलग हो गए। मुझे लगता नहीं था कि गौतम इस तरह भूला देगा। चलचित्र की भांति सारी बचपन की यादें आ रही थी। भूख भी न जाने कहां गुम हो गई, जैसे बचपन में मां की डांट खाकर ही खाना खाती थी भूख लगना किसे कहते हैं पता ही नहीं। 
बचपन की दुनिया से बाहर आकर देखा तो शाम घिर आई थी। मैंने इधर--उधर देखा सभी समुन्द्र को अकेला छोड़ अपने घर लौट रहे थे। मैं भी अनमने से उठकर चादर तह करके आशा भरी निगाहों से चारों तरफ़ देखा। शायद ? शायद ? कहीं गौतम दीख जाए ।
सब ब्यर्थ । मैं अब चिन्तित हो उठी। गौतम नाम है उस शख्स का जो अपने कहें से नहीं पलटा करता। समझ नहीं पा रही थी यह डायलॉग देने वाला गौतम ऐसा कैसे कर सकता है। मन में बहुत सी आशंका उठ रही थी।???
घर आकर भी ना खाना बनाने की इच्छा थी ना खाने की। बिछावन पर लेटी यहां वहां की बातों में लगी रही। फिर दिनभर की थकावट ने नीद की गोद में डाल दिया। सबेरे नीद से जगने पर सोचा अब अधिक नहीं सोचकर अपने काम में लगा जाए। नाश्ता बनाकर नाश्ता करने के बाद आराम से बैठ कर टीवी देखने लगी।
इतने में घंटी बजी, दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। ऐसा लगा शायद गौतम है, कल नहीं आ सका तो आज अपनी गलती सुधारने आ गया है। दरवाजा खोला तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। 
मेरे सामने गेरुआ वस्त्र में एक अधेर आदमी खड़ा था। मैं कुछ पूछती इससे पहले वह बोल उठा - बहन मैं मठ का सन्यासी हू। मठाधीश गौतम जी को कल हर्ट अटेक आ गया था, उन्हें अस्पताल में आई सी यू में रखा गया है। उनके सामानों की तलाशी ली गई तो उसमें आपका पता मिला। सभी ने विचार किया आपको खबर कर दी जाए।
मेरा सर घूमने लगा समझ में सारी बातें आ गई। मैं अपने आप को सम्हालते हुए पूछा - आपने उनकी पत्नी और बच्चों को खबर कर दी ? 
जी यह क्या कह रही है आप ? पत्नी और बच्चे गौतम भाई मठाधीश है, उनका परिवार कहां से होगा ? मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था । मुझे तो सभी ने बताया था गौतम  अपनी बीबी बच्चों को लेकर किसी दूसरे शहर में नौकरी करता है। मैने उन्हे बैठने को कहा ,घर के अंदर से कुछ पैसे लेकर उनके साथ अस्पताल के लिए चल पड़ी। रास्ते में वह गौतम की बात करता जा रहा था बहुत अच्छे आदमी हैं। सबकी सहायता करते हैं। भगवान उन्हें जल्द ठीक कर दे। मेरे कान में उसकी बातें आ रही थी लेकिन समझ में कुछ नहीं आ रहा था। बार-बार यही बात दिमाग में हलचल  मचा रखी थी कि सबने मुझसे झूठ क्यो कहा ? गौतम ने शादी क्यो नही की ? मठाधीश क्यो बना ? प्रश्न हजारों हैं जिसका जवाब केवल गौतम के पास है ।
अस्पताल पहुंचकर मुझे नर्स से इजाजत लेनी पड़ी गौतम से मिलने की। अंदर गौतम बेसुध पड़े थे , कृशकाय शरीर श्वेत केश, बढ़ी दाढ़ी तो क्या यही गौतम है ? वह नटखट सा बच्चा जौ इतना वाचाल था कि सबसे डांट पड़ती थी चुप रहने के लिए। आक्सीजन मास्क लगी थी, चुपचाप पड़ा था। इस हालत में देखकर मुझपर क्या गुजरी बता नहीं सकती।
तीन दिन और तीन रात मैं वहा उसके करीब रही लेकिन उसने नहीं बताया क्यो मुझे बुलाया था क्यो मिलना चाहते थे ?
फिर वह समय भी देखने पड़ें मुझे जब चेहरे से आक्सीजन मास्क निकालते हुए डाक्टर ने कहा-- मठाधीश गौतम नहीं रहें। मैंने अपना सबसे प्यारा दोस्त खो दिया।
मुझे उनका सामान दिया गया ।  बक्से में स्कूल की ग्रुप पिक्चर , मुझसे छीनी गई पेंसिल, मेरी कटी उंगली से खोली गई रक्तरंजित पट्टी, कुछ अधलिखे खत और एक कविता लिखी डायरी थी।
सामानो ने बता दिया मुझे गौतम , गौतम था मठाधीश नहीं।

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