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दोस्ती- रहित-दोस्त

तमाम उम्र साथ रहने का वादा न था।
पत्थर पर नाम उसने लिखा ही न था।

आया था वह बदलते मौसम की तरह।
लौटकर फिर दुबारा उसको आना न था।

कुछ कह तो दिया पर कुछ अनकहा रह गया।
लिख डाली सबकुछ कुछ अनलिखा रह गया।

थक गई हूं ऐ जिंदगी किस्तों में जीते हुए।
अपनी ही लाश अपने कंधों पर ढोते हुए।

मुझे जो कुछ भी मिला अधूरा ही मिला।
नदी सी बहती रही पर समंदर नहीं मिला।

मेरे अल्फाज अब मुझे ही लगें डसने ।
जंजीर की बेड़ियों में लगे मुझे कसने।

कहने को तो बहुत कुछ है पर कहूं तो कहूं कैसे।
अजीब माहौल है शहर का हर जुबान पर पहरे।

वक्त वक्त की बात है अपना भी वक्त था।
मां--बाप का हाथ जब तलक मेरे सर पर था।
दुनिया से कोई तो था जिसे मुझ पे नाज था।

सारी दुनिया थी मेरी और मैं शहंशाह था।
सब के सब मेरे हुक्म के ही तलबगार थे।

जाने कहां गया और कौन लूट गया बचपन।
यह कौन-सा दलदल में ढकेल गया बचपन।

सब खिलौने वैसे ही पड़े हैं मैं बड़ा क्यो हो गया।
गोलू-मोलू, चुनू मुन्नू  छोटू भी बड़ा अब हो गया।

अब भी मिलते हैं सभी पर अब नहीं वो बात है।
दोस्ती रहित दोस्तों की टोली अब भी मेरे साथ है।

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