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जख्म खुद भर जाएंगे

खुशी मिलती थी उन्हें मुझसे जुदा होकर।
यह सोचकर जुदाई को गले से लगाया हमने।

अब वही इल्जाम लगा बैठे हैं बेबफाई का।
जिन्हें वफ़ा होती है क्या सिखाया हमने।

अक्सर वो अपने घर का रास्ता भूल जाते थे।
कंधे का सहारा दे आशियाने तक पहुचाया हमने।

अब भी अक्सर वो आ जाते हैं हमारे गरीबखाने में।
ख्यालों में ख्वावो में इवादत और पूजा की थाली में।

माथे पर शिकन उनका मुझे झकझोर जाता है।
देखूं उन्हें ऐसा तो मेरे अंदर कुछ टूट जाता है।

माना मुहब्बत न थी मुहब्बत जैसा ही कुछ तो था।
उम्मीद थी, वफ़ा थी, कुर्बानी जैसा ही कुछ तो था।

झूठी तसल्ली देकर दोस्ती न निभाया जाए।
जख्म खुदभर जाएगे मरहम न लगाया जाए।

जिस वस्ती में निलाम हुआ था घर मेरा।
उस वस्ती में मुझे माला न पहनाया जाए।

मैं जहां से जाता हूं फिर लौटकर नहीं आता हूं।
जिंदगी कहते हैं मुझे मौसम से न आंका जाए।

मरहम न लगाया जाए

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