![]() |
मैंने चुरा कर खाया |
बचपन में सबसे अच्छे समय तब हुआ करती थी, जब गर्मी की छुट्टियां आती थी। विद्यालय बंद धमाल शुरू। ऐसा नहीं था पहले हम पर कोई अंकुश नहीं था, पर हम मानते कहां थे।
घर में आना ही तब होता था जब पेट में चूहे कूदने लगते थे।
भरी दुपहरी की गर्मी में मां के सोते खेलने निकल जाना। सबसे अच्छी बात थी एक महीने गांव में रहने को मिलता था। याद है कैसी बेसब्री से इंतजार रहता था छुट्टियों का।
इस बार कुछ ऐसा हुआ मां नहीं जा पाई गांव हम दोनों बहनें ही गई। दिल में मां के नहीं जाने का कोई मलाल नहीं। गांव में चाचा का पूरा परिवार था।
भरी दुपहरी की गर्मी में मां के सोते खेलने निकल जाना। सबसे अच्छी बात थी एक महीने गांव में रहने को मिलता था। याद है कैसी बेसब्री से इंतजार रहता था छुट्टियों का।
इस बार कुछ ऐसा हुआ मां नहीं जा पाई गांव हम दोनों बहनें ही गई। दिल में मां के नहीं जाने का कोई मलाल नहीं। गांव में चाचा का पूरा परिवार था।
मां के नहीं जाने से रोक टोक करने वाले की कमी ही होगी,मस्ती में इजाफा ही होगा फिर काहे कि चिंता।
कहते हैं इंसान कुछ और सोचता ख़ुदा को कुछ और ही मंजूर होता है। मेरे गांव पहुंचने का इंतजार शाय़द बुखार को भी था। सर बदन दर्द के साथ बुखार चढ़ आया। आज के जैसे पारासीटामोल का रिवाज नहीं था।
थर्मामीटर में बुखार का पारा चढ़ते पूरा घर डाक्टर बन जाता था। कोई खिड़की किवार बंद करने की हिदायत करता तो कोई गरम पानी पीने की सलाह देता। बुखार में खाना बंद कर देना तो डाक्टरी का पहला सबक था।
सोचती हूं बुखार में भूख कैसे लगती थी, अब तो नहीं लगती। अभी डाक्टर खाने से मना जो नहीं करते शाय़द यहीं कारण हो भूख लगने की।
कहते हैं इंसान कुछ और सोचता ख़ुदा को कुछ और ही मंजूर होता है। मेरे गांव पहुंचने का इंतजार शाय़द बुखार को भी था। सर बदन दर्द के साथ बुखार चढ़ आया। आज के जैसे पारासीटामोल का रिवाज नहीं था।
थर्मामीटर में बुखार का पारा चढ़ते पूरा घर डाक्टर बन जाता था। कोई खिड़की किवार बंद करने की हिदायत करता तो कोई गरम पानी पीने की सलाह देता। बुखार में खाना बंद कर देना तो डाक्टरी का पहला सबक था।
सोचती हूं बुखार में भूख कैसे लगती थी, अब तो नहीं लगती। अभी डाक्टर खाने से मना जो नहीं करते शाय़द यहीं कारण हो भूख लगने की।
इंसान को मना किया जाए उस काम को करने में कुछ ज्यादा ही आनंद आता है।
घरवाले परेशान मेरे मां पिता जी को खबर कैसे की जाए ?
अरे फोन मोबाइल का जमाना नहीं था, मैंने कहा तो आपसे पारासीटामोल के जमाने की बात नहीं है , यह वह समय था जिसे बुखार हो उसे चादर से ढक कर रखो, हवा ना लगें। सारे खिड़की दरवाजे बंद करो कही पेसेंट को ताजी हवा न मिल जाएं।
परेशानी की भी हद होती है भाई ,बिमार को ताजी हवा न मिल जाएं, नित्य क्रिया का सम्पादन भी पैन लगाकर करवाया जाता था।
बिछावन पर चादर ओढ़ कर पड़े रहो। चाची साथ में सोती थी, उनका हिदायत था खुद से उठना नहीं जो जरुरत हो मुझे बता देना।
आधी रात में नींद खुली तो देखा चाची नहीं है, बिछावन से उतर कर बरामदे में आई तो चाची को आंगन में सोए पाया।
एक तो गर्मी का समय साथ ही एक सौ तीन डिग्री बुखार वाले के पास सोना। बेचारी चाची मुझे नींद में देखकर आंगन में खुली हवा में सो रही है।
मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कारण बताऊं - मेरे कमरे में लंगड़ा आम की टोकरी पड़ी थी, आंगन में बाल्टी जिसमें पशुओं के लिए छिलके डाला जाता था।
मैं चुपचाप टोकरी से आम निकालकर दो आम खा लिया। आम लंगड़ा और वह भी दो ?
आप समझ सकते हैं कितनी भूख लगी थी। छिलके को बाल्टी में डालते मेरे दिमाग में विचार कौंधा - सब सो रहे क्यो न आम का अचार भी निकाल कर लें आए। अचार का ख्याल आते मुंह में पानी भर आया। मैं चुपके-चुपके पैर को बढ़ाते हुए रसोईघर में गई और मर्तबान से एक मुठ्ठी अचार निकाला और आकर बिस्तर में लेट गई।
उस दिन समझी चोरी करना भी आसान काम नहीं है। बहुत थक गई थी मैं, सोए सोए अचार का जीभर आनंद लिया।
सबेरे चाची आई - बच्चिया केहन छी ? कहते हुए मेरे सिर पर अपना हाथ रखा। खुशी से बोल उठी - बड़ नीक अहा के बोखार त उतर गेल। अब अहां के पंथ मिली जाएत।
पंथ यानि गेहूं के आटे को पानी में उबालकर बनी रोटी और परवल की हल्दी नमक वाली सब्जी।
पंथ खाते हुए मैं सोच रही थी- यह अगर पंथ है तो मैं रात में जो खाई थी, वह क्या था ?😀😂🤣
घरवाले परेशान मेरे मां पिता जी को खबर कैसे की जाए ?
अरे फोन मोबाइल का जमाना नहीं था, मैंने कहा तो आपसे पारासीटामोल के जमाने की बात नहीं है , यह वह समय था जिसे बुखार हो उसे चादर से ढक कर रखो, हवा ना लगें। सारे खिड़की दरवाजे बंद करो कही पेसेंट को ताजी हवा न मिल जाएं।
परेशानी की भी हद होती है भाई ,बिमार को ताजी हवा न मिल जाएं, नित्य क्रिया का सम्पादन भी पैन लगाकर करवाया जाता था।
बिछावन पर चादर ओढ़ कर पड़े रहो। चाची साथ में सोती थी, उनका हिदायत था खुद से उठना नहीं जो जरुरत हो मुझे बता देना।
आधी रात में नींद खुली तो देखा चाची नहीं है, बिछावन से उतर कर बरामदे में आई तो चाची को आंगन में सोए पाया।
एक तो गर्मी का समय साथ ही एक सौ तीन डिग्री बुखार वाले के पास सोना। बेचारी चाची मुझे नींद में देखकर आंगन में खुली हवा में सो रही है।
मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कारण बताऊं - मेरे कमरे में लंगड़ा आम की टोकरी पड़ी थी, आंगन में बाल्टी जिसमें पशुओं के लिए छिलके डाला जाता था।
मैं चुपचाप टोकरी से आम निकालकर दो आम खा लिया। आम लंगड़ा और वह भी दो ?
आप समझ सकते हैं कितनी भूख लगी थी। छिलके को बाल्टी में डालते मेरे दिमाग में विचार कौंधा - सब सो रहे क्यो न आम का अचार भी निकाल कर लें आए। अचार का ख्याल आते मुंह में पानी भर आया। मैं चुपके-चुपके पैर को बढ़ाते हुए रसोईघर में गई और मर्तबान से एक मुठ्ठी अचार निकाला और आकर बिस्तर में लेट गई।
उस दिन समझी चोरी करना भी आसान काम नहीं है। बहुत थक गई थी मैं, सोए सोए अचार का जीभर आनंद लिया।
सबेरे चाची आई - बच्चिया केहन छी ? कहते हुए मेरे सिर पर अपना हाथ रखा। खुशी से बोल उठी - बड़ नीक अहा के बोखार त उतर गेल। अब अहां के पंथ मिली जाएत।
पंथ यानि गेहूं के आटे को पानी में उबालकर बनी रोटी और परवल की हल्दी नमक वाली सब्जी।
पंथ खाते हुए मैं सोच रही थी- यह अगर पंथ है तो मैं रात में जो खाई थी, वह क्या था ?😀😂🤣
1 Comments
Nice depiction mam. Really good.
ReplyDelete