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परिभाषित नहीं है

प्रेम की कोई भी परिभाषा नहीं 

 मैं यहां प्रेम को परिभाषित करने नहीं आई हूं। सच्चाई तो यह है प्रेम की परिभाषा जब भी देने की कोशिश की गई यह और विस्तृत होता चला गया।

कहीं एक पंक्ति देखी - "चाहत करना प्रेम नहीं," प्रेम समाप्त हो जाता है चाहत खत्म नहीं होती।

अजीब सा लगा चाहत खत्म नहीं होती।

चाहत की जिंदगी बस पसंदीदा जगह, विषय, वस्तु पाने तक की होती है।

प्रेम में कुछ पाने की चाहत होती नहीं, देने की चाहत होती वह भी मोक्ष ? प्रेम अपने आप को अर्पण कर देना है वगैर किसी सुख के। 

एक सच्ची घटना सुनाती हूं। मेरे विद्यालय में एक शिक्षक थे उन्हें पेड़ पौधों से बहुत लगाव था। उनकी शादी हुई बहुत खुश थे। हमें निमंत्रण देकर खाने पर बुलाया। पत्नी बहुत खूबसूरत, देखो तो आंखें फटी की फटी रह जाए।

एक दिन उनका उतरा चेहरा देखकर हैरानी हुई, इतने हंसमुख इंसान आखिर क्या हुआ?

जब सबने इसे महसूस किया तो उनसे सवाल कर दिया गया, आखिर आप उदास क्यों है?

अपना दर्द सुनाते-सुनाते लगा वो रो पड़ेंगे। 

उन्होंने बताया मेरे गुलाब में फूल नहीं आ रहा था,कई तरह के खाद देने पर एक कली आई। मैं हर दिन उसे सुबह-शाम देखता, लगता था फूल ने भी मेरा धैर्य देखने की ठान ली थी।

कल जब मैं यहां से गया, श्रीमती जी ने दरवाजा खोला। मैं हमेशा की तरह अंदर आ गया। 

जब श्रीमती जी को लगा मैंने उनकी तरफ देखा नहीं, उन्होंने मेरा ध्यान खींचते हुए अपनी बालों की तरफ इशारा कर कहा - देखिए यह गुलाब कैसा लग रहा ?

मैं हतप्रभ उनको देखता रहा। यह क्या कर दिया आपने ? मैं गुस्से से कांप रहा था, मैंने गुस्से में कई बातें उनको सुनाई। वह जो अपनी सुन्दरता में चार चांद लगने जैसे शब्द के इंतजार में थी, एक झटके से रुआंसी हो गई। 

मुझे इतना बुरा लगा था आप जानते हैं मुझे पौधों से कितना प्यार है। मैंने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। सुनो जो हो गया, वो हो गया आइंदा से ख्याल रखना फूल तोड़कर जूड़े में लगाने के लिए नहीं लगाई है मैंने समझी आप।

इतना कहकर वह शांत हो गए, हम सभी को तो जैसे काठ मार गया।

 

अब आइए बात कर लें चाहत की उनकी पत्नी को चाहत थी। फूल खूबसूरत थे, उसने उसे तोड़ कर बालों में लगा लिया। चाहत पूरी हो गई अब कोई दूसरी चाहत जन्म लेगी।

चाहत पूरी की जा सकती, पूरी होने पर समाप्त हो सकती है।

प्रेम सामने वाले के लिए होता, समर्पण के लिए कुछ पाने के लिए नहीं।

प्रेम की परिभाषा गढ़ी ही नहीं जा सकती। प्रेम मोक्ष है ऐसा लगता है, लेकिन यह मोक्ष से उपर है। मोक्ष में भी मोक्ष की चाह तो होती है, प्रेम में चाह नहीं बस केवल प्रेम ही होता है, 

प्रेम और चाहत जुड़वां दिखाई देते हैं पर है नहीं। एक की परिभाषा है दूसरी अपरिभाषित है

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