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वैराग्य कठिन है नामुमकिन नहीं |
वैराग्य क्या है ?
वैराग्य को जीवन की स्थिरता और मन का संतोष के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
वैराग्य का अर्थ केवल सांसारिक वस्तुओं और रिश्तों का त्याग नहीं है, यह एक ऐसी आंतरिक अवस्था है, जहां इच्छाओं और आसक्तियों पर विजय प्राप्त होती है।
घर छोड़ जंगल में जाने को वैराग्य नहीं कह सकते।
राग रहित होना वैराग्य कहलाता है। राग यानी आसक्ति, इच्छा,चाहत इससे साधारण मनुष्य अपने को बचा नहीं सकता।
राग मन से उत्पन्न इच्छा, चाहत, आशक्ति है। मन पर काबू रखना नहीं है, हमें ना ही मन को दबाना है। कहते हैं मन बहुत चंचल होता है कहीं ठहर कर रहने की इसकी प्रवृत्ति ही नही होती है।
अगर मन पर काबू रखने की कोशिश करोगे या दबाना चहेंगे तो रबड़ के गेंद के जैसा दुगना वेग से उछल पड़ेगा।
एक उदाहरण लेते हैं- मन में आ रहा है गोलगप्पा जाए, आप यह जानते हो कि यह आपके स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है। आपको इसमें ऐसे काम लेना होगा, मन को किसी दूसरी जगह वस्तु या खाद्य पदार्थ पर धीरे-धीरे करके आप ले जा सकते हैं।
आप चाहे तो गोलगप्पा खिला दें लेकिन मन को समझाने की कोशिश करें कि यह आपके लिए हानिकारक है।
योग अभ्यास करके मेडिटेशन करके आप अपने मन को उचित अनुचित की तरफ ले जा सकते हैं।
मेडिटेशन के दरमियान मैंने देखा है। वहां यह कहा जाता है, आपके मन में जो विचार आ रहे हो - अच्छे या बुरे, उन्हें रोके नहीं रोकने की कोशिश ना करें। विचार जैसे भी आ रहे हो, उन्हें केवल आप देखते रहे। आपके विचार मे दोस्त- दुश्मन, द्वेष, ईर्ष्या, श्रद्धा, प्यार, नफरत जैसी कोई भी भावनाएं आ रही हो,उसे आते जाते देखते रहे।
आप मुक्त दृष्टा बनकर देखें। वैराग्य का पहले चरण यही से शुरू होता है। मन को रोके नहीं, उसे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मन जो चाह रहा है, वह नहीं मिलने पर भी
उसे कोई दुख या मलाल ना रहे।
बात थोड़ी-सी कठिन लग रही है लेकिन असंभव नहीं है। आत्म चिंतन, आत्म अनुशासन से यह सर्वथा संभव है। हां यह एक लंबी प्रक्रिया जरुर है।
वैराग्य को पाने के लिए आत्मचिंतन और आत्मानुशासन का महत्व सर्वोपरि है।
1. वैराग्य पाने के तरफ एक कदम-
वैराग्य का पहला कदम है अपने मन को पहचानना। यह देखना कि किन इच्छाओं और भावनाओं के कारण हम दुखी होते हैं। उन इच्छाओं, भावनाओं का त्याग ज़रूरी नहीं, परंतु उन पर निर्भरता छोड़ देना आवश्यक है। योग और ध्यान ऐसे साधन हैं जो मन को स्थिर करने में सहायक होते हैं। यह अभ्यास धीरे-धीरे हमारे विचारों को नियंत्रित करता है और हमें अपने अंतर्मन के करीब लाता है।
2. मन पर काबू पाना -
मन पर नियंत्रण पाना आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है।
यह हमारे शरीर का चंचल और भटकने वाला हिस्सा होता है। परंतु इसे बस में किया जा सकता है, सतत अभ्यास और धैर्य से। जब भी मन भटकने लगे, उस समय स्वयं से प्रश्न करें—क्या यह विचार मेरे लिए आवश्यक है? क्या यह मुझे सुख या दुख दे रहा है? इस प्रकार के आत्मनिरीक्षण से धीरे-धीरे आप अपने मन के स्वामी बन सकते हैं।
3. इच्छाओं और भावनाओं से मुक्ति-
मन को बस में करने का अर्थ यह नहीं कि आप अपनी इच्छाओं को समाप्त कर दें।
मन को या अपनी इच्छाओं को मारकर जीतना वैराग्य का रास्ता नहीं है।
ऐसा दृष्टिकोण अपनाएं कि अगर इच्छाएं पूरी हों तो भी खुश रहें और ना हों तो भी खुश रहें।
इच्छाओं और भावनाओं को स्वीकार करके उनके प्रति निष्पक्ष दृष्टि विकसित करना ही वैराग्य है।
दूसरे शब्दों में अपने आप को अपने अंतःकरण को ऐसे मुकाम पर लेकर जाना जहां पाना और खोना मैं आप समान भाव से रह सके।
4. मन का अनुशासन -
मन को अनुशासित करना नियम में बांध कर रखना मुश्किल लग रहा होगा।
अनुशासन और नियमितता वैराग्य की ओर एक बड़ा कदम है। प्रतिदिन ध्यान, योग, और सकारात्मक विचारों को अपनाकर मन को शांत और संतुलित रखा जा सकता है।
संतोष को जीवन का हिस्सा बनाएं, क्योंकि जो संतोष में जीता है, वही असली बैरागी होता है।
अपने पास है उसमें संतोष करना, संतोष करने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम आगे बढ़ाने की कोशिश ही ना करें।
अपने समर्थ के अनुसार जितना कुछ अर्जित कर पाए हैं, उससे संतुष्ट रहने की कोशिश करें।
यहां मैं एक छोटे बच्चों का उदाहरण देख रही हूं। बच्चा कोई खिलौना देखकर मचल उठता है, अगर हम उसे दिला सकते हैं तो खिलौना दिया देते हैं। नहीं दिला पाने की स्थिति में उसे हम प्यार से समझने की कोशिश करते हैं।
बस ऐसे ही जो चीज आपके पास है उसमें संतुष्ट रहे हैं, जो नहीं है तो अपने पुरुषार्थ से अर्जित करें। अगर आप नहीं अर्जित कर पाते हैं तो प्यार से योगाभ्यास से अपने मन को समझाएं ना कि मन पर काबू पाने की कोशिश करें ,मन को बुरा-भला कहें। अगर आप मन को दबाव देकर काबू में करना चाहते हैं तो परिणाम स्वरूप आपको कुंठित मानसिकता का सामना करना पड़ सकता है।
क्या मन को बस में किया जा सकता है?
यह सवाल हर साधक के मन में उठता है। मन को पूरी तरह से बस में करना शायद असंभव लगे, लेकिन उसे सही दिशा में प्रशिक्षित करना अवश्य संभव है।
यह प्रक्रिया धीमी होती है, मगर अभ्यास, धैर्य और समझदारी से मन को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है।
सांसारिक व्यक्ति के लिए कठिन लगता है अपने आप को, अपने मन को, अपनी चाहत को समझाना।
वैसे तो हजारों वस्तुएं हैं या यूं कहें हमें किसी से उनकी चाहत नहीं रखनी चाहिए। मुख्यतः तीन ऐसी बातें अपने मन को समझा दें 1- प्यार 2- सम्मान और 3- समय ।
भूल कर भी इसकी चाहत किसी से ना रखें।
प्यार, प्रेम, मुहब्बत भीख या दान में दिया जाने वाला चीज नहीं।
सम्मान आप किसी को बोल कर नहीं पा सकते हैं। इसकी चाहत ना रखें।
समय ऐसा धन है जिसकी कमी सबके पास है।
मन मूर्खतावश इनकी चाहत कर बैठा तो आपको डिप्रेशन में ले जाएगा।
चाहत की बात करते हुए मुझे गीता में कृष्ण वचन याद आ रहा है।
कृष्ण कहते हैं - हे पार्थ चाहत किसी की भी नहीं होनी चाहिए, यदि कोई मुझे भी चाहता है, तो उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होने वाला, अतः आप केवल अपने कर्म करों, वह भी निष्कामभाव से।
सब में एक ही आत्मा का निवास है यह तो हम सभी कहते हैं लेकिन मानते कहां है? जैसे खुद जलने या कटने से जो दर्द होता है, हर एक जीव को ऐसा ही कष्ट होता है।
दुर्भाग्यवश हम अपना दर्द ही महसूस कर पाते है औरों के नहीं।
वैराग्य का अर्थ है हर परिस्थिति में शांत और स्थिर रहना। जीवन की हर स्थिति को स्वीकार कर प्रसन्न रहना ही बैरागी होने की सही परिभाषा है।
सुख हो या दुःख समभाव रहे। सुख पाकर उछल ना पड़े दुःख पाकर अवसाद में जाने से बचें।
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