🌑 "चुप्पी की आग"
किसी स्त्री को तोड़ना बहुत आसान है,
जैसे काँच को ज़मीन पर पटक देना।
पर उसे जोड़ना... जैसे ---
बिखरे काँच से फिर आईना बनाना।
नामुमकिन ही नहीं असंभव है।
वो टूटती है आपके बेरुख़ी से,
जोड़ती है अपने आंसू की स्याही से।
जुड़ने के लिए न कोई सहारा, न कोई आवाज़—
ख़ामोशी की गोद में सौंप देती है अपने आप को।
अकेलेपन की कड़वाहट में
वो रचती है एक ऐसा संसार।
जहां सिसकियां शब्द नहीं मांगतीं,
यादों को फेंकती नहीं रख लेती है।
अपनी घायल आत्मा किसी कोने में।
उसकी यादें सच्ची कविताएं बन जाती हैं।
हर पुकार अनसुनी रह जाती है,
हर समर्पण उपेक्षित हो जाता है।
वो कोई शोर नहीं करती--खुद से हार जाती,
बस धीरे-धीरे उस मोह से अलग हो जाती है।
कभी पूरे मन, तन और आत्मा से सींचा था।
टूटे रिश्ते की तुरपाई करना भी संभव नहीं हो,
वह लौट आती है रिश्ते को यथावत छोड़कर।
अब तक उसे समझ आ जाता है
उसकी भावनाएं अब मूल्यहीन हैं।
तब वो लौट जाती है अपने भीतर के कवच में।
अपने अस्तित्व को समेट लेती है,
अभिमान करना भी छोड़ देती है।
अपने कोमल तन, मन और हृदय को--
समेट लेती है अपनेको कछुए सा कठोर आवरण में।
एक कठोर आवरण ओढ़ लेता है उसका चटका मन।
उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कौन आया? कौन गया?
प्रेम नफ़रत तराज़ू पर हो डंडे समतल सीधे रहते हैं।
पत्थर की अनगढ़ मूर्ति बनी औरत को।
कोई राम ही फिर स्त्री में बदल सकते।
चुप स्त्री अहिल्या बन बैठी रहती है---
अपने इष्ट राम के इंतजार में 🙏
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