अब शुरू हुई मेरी रैंगींग घर और बाहर दोनों जगह। सबसे बिछावन छोड़ने के बाद अगर मुंह हाथ धोने लगूं तो लेट हो जाऊंगी। बेहतर है चाय धीमी आंच पर डालूं फिर ब्रश करने की आदत बनाई। चाय पीने के लिए कटोरे का सहारा लिया ताकि समय बचाया जा सकें।अब बारी आई नाश्ता बनाने की तो मेरे समय में मैंगी,न्यूडलस नहीं थे। सब्जी और रोटियों का चलन था।वह तो भला हो हमारी नौकरानी का जो सबसे के लिए शाम में सब्जी काट दिया करती थी साथ में आटे भी गूंथे मिलते थे।कभी कभार तो आलू परांठे के लिए आलू भी तैयार मिलते थे। यह सुविधा ऐसे थोड़े न मिलती थी,मुझे उसकी भराई के पुल बांधने परतें थे।सच बताऊं जितनी तारीफी की पुलिस मैंने उसकी बांधी उतनी आजतक किसी की नहीं।मुझसे लोग नाराज भी इसी बात से हो जाते हैं।मेरी आदत है किसी की वेबजह बड़ाई नहीं होती ।हां अगर कुछ अच्छा लगे मन को छूने जाए तो मैं चाहूं भी तारीफ न करने की तो रूक नहीं पाती। हां तो नाश्ते केवल करने के लिए नहीं ले जाने के लिए भी बनाने होते थे। मैं पतिदेव और दो बच्चें यानि चार नाश्ते के साथ चार टीफिन बनाकर तब स्नान, फिर तैयार होकर बैग में टीफिन पानी ली और रिक्शा दरवाजे पर।
रिक्शे में बैठते रजिस्टर की याद आ गई,अभी तक तो भाग-भाग में सब भूली हुई थी।सारे रास्ते यही सोचते निकल गए, आज रजिस्टर ले जाने से मना कर दूंगी। जब किसी गहन सोच में डूबे रहो तो पता ही नहीं चलता रास्ते अब कट गए , रिक्शा रूकी तो देखा मैं गेट पर थी।
समझ नहीं पाती जो सब प्लानिग की थी ,उसका करता हो जाता था,जैसे ही अरदास जाने और रजिस्टर उठाने की बात आती, हाथ रजिस्टर की तरफ उठ जाते।मैं चुपचाप भूत बनी रजिस्टर लिए चल पड़ती। सारी प्लानिंग के फेर होते विचार आते चलो कोई बात नहीं कल ले जाने से इन्कार कर दूंगी।यह सिलसिला महीनों चलते रहा हर दिन कल की प्लानिंग करती फेल होने पर अगले दिन पर कल जाती।
सवाल था अगर प्यार से कहती तो मैं तमाम उम्र उनका रजिस्टर ले जाती लेकिन उनलोगों ने अधिकार की बातें की थीं। मैं किसी भी तरह उनकी बातों के लहजे को वर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।मैं सब कुछ होते हुए यानि अच्छा सा विद्यालय ,प्यारे स्टुडेन्ट और मन पसन्द काम इस रजिस्टर ढोऊ प्रोग्राम ने मेरी चैन ही छीन रखी थी।
इस बीच कुछ ऐसा हुआ जिनका दबदबा था , उन्होने सबको बताया ( चाय अब टीफिन में नहीं बनेगी) कारण बताई सबेरे चाय नहीं पी पाती हूं, टीफिन तक लेट हो जाती है, मेरा सर दर्द करने लगता है।
मुझे मन में आया कहूं कुछ सबेरे जगा करो मैडम जी ,एक अपने कारण कर्मों सबको परेशान कर रही हो ? मन में आनी अलग बात होती, कह देनी अलग, मन तो अपना है जितना कह लो कहने में तो हिम्मत चाहिए होती है जो थी ही नहीं।मुझे आश्चर्य हो रहा था, किसी ने कोई आव्जेकशन नहीं की। फिर नियम लागूं हो गया दूसरी घंटी में चाय बनेगी । शिक्षकगण अपने अपने लीजर पीरीयड में आकर चाय देंगें। उनके साथ कुछ और लोगों की दूसरी घंटी खाली थी तो कुछ की तीसरी मेरी और मिसेज द्विवेदी की चौथी यानि टीफिन से जस्ट पहले वाली। जब हम दोनों पहुंचने तो मुश्किल से बार - बार गर्म होने के कारण एक कप काली कलूटी चाय बची थी। हम दोनों ने हिम्मत जुटाई और पाॅब्लेम सबके सामने रखा। हमारे बोलने से तूफान आ गया। मैडम जी गुस्से में आ गई, बहुत कुछ सुना दिया। अरे इतना भी तीर्थ नहीं है आप लोगों में आज पहला दिन था, कल से थोड़ी चाय बढ़ा दी जाएगी। बड़ों की तो कोई इज्जत ही नहीं हो जैसे आप लोगों ने मुझसे सवाल कर दी ? पैसे आपने भी दिए हैं तो क्या एटेनडेन्ट को खरीद ली है आपने ? मैडम जी यूं पी की थी और बिहारी भी आदमी होते हैं नहीं मानती थी। सीधे आ गई मेरे स्टेट पर ,पता नहीं बिहारियों को मैनर्स क्यों नहीं सिखाया जाता ? सच कहूं ऐसा सुनने के बाद मेरी इच्छा हुई कि उठाकर पटक दूं और कहूं मैडम जी बिहारियों को गाली मत दो, तुम बिहार में ही नौकरी कर रही हो ( उस समय झाड़खंड अलग नहीं हुआ था) । वह बोलती जा रही थी और मुझे रूलाई आ गई। मैं चुपचाप बाथरूम में चली गई। छुपकर रोनी हो तो इससे उचित स्थान दूसरा नहीं है। जितनी इच्छा हो तो वो, फिर आंसू साफ कर निकल आओ।
कुछ लोगों की नजरें पारखी होती ऐसी ही थी बसंती लकड़ा जी। मेरे बाहर आते ही मुझे अपने रूम में चलने को कहा, बहुत तरह से समझाने की कोशीश की। उनके प्यार भरे शब्दों ने मेरे आसूंओं के बांध तोड़ दिए । अब माजरा यह था मैं चुप होना चाहकर भी चुप नहीं हो पा रही थी। वह मेरे आंसू पोंछे जा रही और मैं रोते जा रही थी।
अब एक और मुसीबत सामने आ गई। छुट्टी के समय जब नीचे आई तो चाय की ग्लास टेबल पर पड़ा हुआ था। हम दोनों ने थे और हमारे पास कोई लाॅटरी नहीं था। एटेन्डेट उनलोगो के लॉकर में ही हमारे ग्लास रख दिया करती थी। मिसेज द्विवेदी ने कहा लगता भूल गई कोई बात नहीं , लेकर चलते हैं फिर कल लेते आएंगे।ददं
लेकिन मुझे आशंका थी यह अनजाने में नहीं जानबूझ कर किया गया है ???
रिक्शे में बैठते रजिस्टर की याद आ गई,अभी तक तो भाग-भाग में सब भूली हुई थी।सारे रास्ते यही सोचते निकल गए, आज रजिस्टर ले जाने से मना कर दूंगी। जब किसी गहन सोच में डूबे रहो तो पता ही नहीं चलता रास्ते अब कट गए , रिक्शा रूकी तो देखा मैं गेट पर थी।
समझ नहीं पाती जो सब प्लानिग की थी ,उसका करता हो जाता था,जैसे ही अरदास जाने और रजिस्टर उठाने की बात आती, हाथ रजिस्टर की तरफ उठ जाते।मैं चुपचाप भूत बनी रजिस्टर लिए चल पड़ती। सारी प्लानिंग के फेर होते विचार आते चलो कोई बात नहीं कल ले जाने से इन्कार कर दूंगी।यह सिलसिला महीनों चलते रहा हर दिन कल की प्लानिंग करती फेल होने पर अगले दिन पर कल जाती।
सवाल था अगर प्यार से कहती तो मैं तमाम उम्र उनका रजिस्टर ले जाती लेकिन उनलोगों ने अधिकार की बातें की थीं। मैं किसी भी तरह उनकी बातों के लहजे को वर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।मैं सब कुछ होते हुए यानि अच्छा सा विद्यालय ,प्यारे स्टुडेन्ट और मन पसन्द काम इस रजिस्टर ढोऊ प्रोग्राम ने मेरी चैन ही छीन रखी थी।
इस बीच कुछ ऐसा हुआ जिनका दबदबा था , उन्होने सबको बताया ( चाय अब टीफिन में नहीं बनेगी) कारण बताई सबेरे चाय नहीं पी पाती हूं, टीफिन तक लेट हो जाती है, मेरा सर दर्द करने लगता है।
मुझे मन में आया कहूं कुछ सबेरे जगा करो मैडम जी ,एक अपने कारण कर्मों सबको परेशान कर रही हो ? मन में आनी अलग बात होती, कह देनी अलग, मन तो अपना है जितना कह लो कहने में तो हिम्मत चाहिए होती है जो थी ही नहीं।मुझे आश्चर्य हो रहा था, किसी ने कोई आव्जेकशन नहीं की। फिर नियम लागूं हो गया दूसरी घंटी में चाय बनेगी । शिक्षकगण अपने अपने लीजर पीरीयड में आकर चाय देंगें। उनके साथ कुछ और लोगों की दूसरी घंटी खाली थी तो कुछ की तीसरी मेरी और मिसेज द्विवेदी की चौथी यानि टीफिन से जस्ट पहले वाली। जब हम दोनों पहुंचने तो मुश्किल से बार - बार गर्म होने के कारण एक कप काली कलूटी चाय बची थी। हम दोनों ने हिम्मत जुटाई और पाॅब्लेम सबके सामने रखा। हमारे बोलने से तूफान आ गया। मैडम जी गुस्से में आ गई, बहुत कुछ सुना दिया। अरे इतना भी तीर्थ नहीं है आप लोगों में आज पहला दिन था, कल से थोड़ी चाय बढ़ा दी जाएगी। बड़ों की तो कोई इज्जत ही नहीं हो जैसे आप लोगों ने मुझसे सवाल कर दी ? पैसे आपने भी दिए हैं तो क्या एटेनडेन्ट को खरीद ली है आपने ? मैडम जी यूं पी की थी और बिहारी भी आदमी होते हैं नहीं मानती थी। सीधे आ गई मेरे स्टेट पर ,पता नहीं बिहारियों को मैनर्स क्यों नहीं सिखाया जाता ? सच कहूं ऐसा सुनने के बाद मेरी इच्छा हुई कि उठाकर पटक दूं और कहूं मैडम जी बिहारियों को गाली मत दो, तुम बिहार में ही नौकरी कर रही हो ( उस समय झाड़खंड अलग नहीं हुआ था) । वह बोलती जा रही थी और मुझे रूलाई आ गई। मैं चुपचाप बाथरूम में चली गई। छुपकर रोनी हो तो इससे उचित स्थान दूसरा नहीं है। जितनी इच्छा हो तो वो, फिर आंसू साफ कर निकल आओ।
कुछ लोगों की नजरें पारखी होती ऐसी ही थी बसंती लकड़ा जी। मेरे बाहर आते ही मुझे अपने रूम में चलने को कहा, बहुत तरह से समझाने की कोशीश की। उनके प्यार भरे शब्दों ने मेरे आसूंओं के बांध तोड़ दिए । अब माजरा यह था मैं चुप होना चाहकर भी चुप नहीं हो पा रही थी। वह मेरे आंसू पोंछे जा रही और मैं रोते जा रही थी।
अब एक और मुसीबत सामने आ गई। छुट्टी के समय जब नीचे आई तो चाय की ग्लास टेबल पर पड़ा हुआ था। हम दोनों ने थे और हमारे पास कोई लाॅटरी नहीं था। एटेन्डेट उनलोगो के लॉकर में ही हमारे ग्लास रख दिया करती थी। मिसेज द्विवेदी ने कहा लगता भूल गई कोई बात नहीं , लेकर चलते हैं फिर कल लेते आएंगे।ददं
लेकिन मुझे आशंका थी यह अनजाने में नहीं जानबूझ कर किया गया है ???
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