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क्षणिकाएं - 4


रोते - रोते हँस पङता हूँ ।
हँसते - हँसते रो पङता हूँ ।
लोग कहते है , मैं पागल हो गया हूं ।

न लाया था कुछ न ले जाउंगा कुछ ।
न आया था कोई न जाएगा साथ मेरे ।

मुठ्ठी भर राख की है सुनो औकाद मेरी।
आदमी हूं आदमी की औकात जानता हूं।
पागल हूं यह भी चलो मैं मानता हूं ।

चलो चलकर इक ऐसा घरौदा बनाते हैं।
पश्चिम से उसमें सूरज बुलाते है।
पूरब से उगते हुए उब गया होगा।

चलो चलकर इक ऐसा घरौंदा बनाते हैं।
रात में सूरज दिन में चंदा बुलाते हैं।
इक ही तरह उगता हुआ था गया होगा।

रात को दिन ,दिन को रात बनाते हैं।
हाकिम का ऐसा ऐलान है जनता से।
बहुत थक गई है, बोलकर उसे चुप कराते हैं।

हाकिम ने एलान किया ,जनता परेशान न हों।
अब रात में सूरज, दिन में चांद निकलेगा ।
न जाएगी नदियां समुंदर मे,समुंदर नदी में समाएगा।

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