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साक्षात्कार भाग--२

असफलता आदमी को उतना नहीं छोड़ती जितना लोगों से मिलने वाली सहानुभूति । अरे आपका नहीं हुआ ,फलाने-फलाने का तो हो गया ? खैर कोई बात नहीं अगले साल ट्राई करें हो जाएगा ।जो मेरे अपने थे , उनके आवाज में भी शिकायत थी, आप जानती तो सब थी,फिर ज़बाब क्यों नहीं दिया। चुप रहने से कोई कैसे समझ लेगा कि आप जानते हो। अब आपको जानकारी न होती तो आप तैयारी कर लेतीं। पर जानते हुए भी ज़बाब नहीं दें सकती तो फिर अगली बार क्यों फजीहत करवानी , दे ही नहीं। सब अपनी अपनी कहानी रहे थे।अरे इनका तो यह हाल है ,दस प्रदशर्न पूछा गया और जानते हुए भी एक का भी ज़बाब नहीं दी इन्होंने । मैं अपना हाल क्या बताऊं ? सोचती मुझे चुप नहीं रहने चाहिए थे, परन्तु आदत भी कोई चीज होती है। अभी भी मुझे कभी - कभी ज़बाब नहीं देकर चुप रहना अच्छा लगता है। अब तो इतना बोलती लोगों को कहना पड़ता कितना बोलती है आप? फिर भी पुरानी आदत अब भी है चुप ही रहने की, चुप रहना यानि किसी से कोई बात नहीं करना अपने आप में रहना खुद से बातें करना ।।
मैंनें अपने आपसे वादा किया, यानि मैंने ठान लिया अब पूरे एक साल बस केवल बोलने का अभ्यास करनी है। मैंने शुरुआत घर से ही किया । कभी - कभी आईने में भी ज़बाब देती। घर में कोई चर्चा होती तो उसमें भी हिस्सा लेती। आदत तो थी नहीं बहस करने की कोई मेरे बात को काटता तो गुस्सा से तमतमा उठती, लेकिन पहले जैसा मैदान छोड़कर भागती नहीं। हां यह बोलने की आदत डालनी महंगी पड़ी मुझे । एक बुरी आदत आ गई किसी की कोई बात बुरी लग जाए तो खाना बंद कर देती, खाना छोड़ने में मेरे रिकार्ड को शायद अन्नाजी भी न तोड़ पाए। अभी भी यह आदत चल रहीं हैं। अब उम्र के साथ थोड़ी कमी यह हुई है कि किसी बात से तकलीफ हुई तो खाना बंद कर दिया , कह दिया मुझे भूख नहीं, या फिर खाने की इच्छा नहीं ,तबियत ठीक नहीं। इसका ईलाज भी मैं खुद ही कर लेती हूं।अकेले में बैठकर रो लेती फिर मन हल्का हो जाता, खाना शुरू कर देती हूं।
खैर मेरे बोलने की तैयारी चलती रही, और साक्षात्कार का समय नजदीक आता रहा। यहां शिक्षकों की बहाली साल में एकबार होती थी। अभी भी कभी-कभी कभी लगता कहीं फिर ज़बाब देने में जुबान ने साथ नहीं दिया तो ? पुरानी कहानी फिर सामने फिर वहीं जगह, लोगों की भीड़, वहीं कमरा, एक-एक कर लोगों का अंदर जाना ,बाहर निकलते कन्डिडेट से पूछना कैसा रहा क्या पूछा गया? प्रेरक केवल इतना था इसबार मैं भी बाहर आनेवालों से पूछती थी-- क्या पूछ रहे हैं ?
मेरा नम्बर आया । क्या मैं अंदर आ सकती हूं ? कुर्सी पर कुछ नए कुछ पुराने चेहरे ।नाम बताएं अपना ? ? ? ? ? प्रश्न आते गए मैं ज़बाब देती गई। बाहर पूछने वालों को मैं खुश होकर बताती चली गई ,क्या- क्या पूछा गया।
इस तरह साक्षात्कार में मैं सफल हो गई। यह खुशी बहुत दिनों तक नहीं रही । विद्यालय में जाकर ज्वाइन करते सारी खुशी ? ? ? फिर कभी 

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