चाय बनाकर सोफे पर बैठकर हाथ मे नई कप पकड़ कर बैठते ही चाय से उठते धुंए के साथ मै भी उड़कर अपने बचपन मे पहुंच गई ।
गर्मी की छुट्टी मे पूरे एक महीने गांव मे रहने का आनंद ही कुछ और था। आम,लीची,जामुन,कटहल के साथ पोखरी (तालाब) मे स्नान। पढ़ाई से छुट्टी, चचेरे भाई बहन के साथ मटर गश्ती। वाह क्या सुनहरे दिन थे।
मेरे यहां औरते घर मे रहती थी और पुरुष दालान पर। दादाजी भोजन के लिए दोनो समय घर आकर किया करते लेकिन शाम मे उनके लिए चाय दलांन पर ले जाने का जिम्मा हम पोतियों की होती थी। पोते वंश होते उन्हे इस तरह के काम जिससे औरताना होने कि बू आती थी दूर रखा जाता था।
चार पोतियां पहले से थी और दो बहने हम पहुंच गए। शाम होते पता चला दादाजी कि चाय ले जाने की पारी लगी थी। हर दिन दो मिलकर चाय ले जाते थे। इस हिसाब से अब हमारी पारी दो दिन बाद आती थी।
आज चाय ले जाने की बात मेरी और एक चचेरी बहन की थी। हाथ मे चाय की केतली लिए हम बथान (मवेशियो के रहने का स्थान) पहुंचे तो मेरे साथ जो बहन थी उसने बताया चलो बथान मे तुमको एक बात बताती हूं।
वहां पहुंच कर वह दो मिट्टी का कूपा जिसे हम कपटी कहते है निकालकर लाई। उसने बताया यह मिट्टी का कूपा पूजा का बचा रह गया। हम लोग बारी बारी से इसलिए आते है, जो चाय लेकर आता है वह यहां बैठकर चाय पीता है। मुझे सुनकर हैरानी के साथ खुशी भी हुई। घर मे हम लड़कियो को चाय पीने की अनुमति नही थी। वहां बैठकर कुल्हर मे दोनो ने चाय पी। सच कहूं तो वह चोरी की कुल्हर वाली चाय पीकर जो आनंद आया पूरी जिन्दगी वह आनंद नही आया।
वहा से हम दोनों दादाजी के पास पहुंच कर उन्हे चाय पिलाई। दादाजी दो तीन कप चाय पीते थे।
एक दिन शायद हम दोनों ने कुछ ज्यादा ही चाय गटक लिया। दादा जी को शक तो नही हुआ परन्तु उन्होने कह दिया- क्या बात है चाय बहुत कम है दो कप भी पूरा नही हुआ। हम दोनो एक दूसरे को चोर निगाह से देखने लगे।
बच्चो का मन कितना भोला होता है, लौटते वक्त हमने प्लानिंग की घर चलकर उन दोनो को सतर्क कर दिया जाए, थोड़ी सी कम ही चाय ले वर्ना दादा जी जान जाएंगे।
उन लोगो ने तो हद ही कर दी। चाय पीकर केतली मे एक कप पानी मिला दी। आज दादा जी ने कुछ नही कहा, चुपचाप से चाय पी लिए। उन दोनों ने अपनी बहादुरी के किस्से हमे सुनाए। हमने सोचा यह तो अच्छा है जितना चाहो पी लो और हैडपंप से पानी निकाल कर केतली मे भर दो।
रात मे दादाजी खाने आए। उन्होने दादी पर रूआब दिखाते हुए कहा- क्या बात है कभी चाय कम,कभी फीकी न दूध न चीनी।
हमारे कान मे दादाजी की आवाज गुंज रही थी- चाय बनाई किसने???
हम सभी डर से कांप रहे थे,कही भेद खुल न जाए। दादी जी ने यह कहकर शांत करवाया- इंसान से गलती हो जाती है, अब ऐसा नही होगा। मै पहले दो घूंट पीकर देख लूंगी।
अब ??? हम सबो का चाय पार्टी कैसे होगा ?
हम सबने विचार-विमर्श कर नतीजा निकाला अब भी चाय हम पिएगे लेकिन आधे कूप्पे।
वह आधी कूप्पे चाय की स्वाद अभी भी जीभ पर है।
गर्मी की छुट्टी मे पूरे एक महीने गांव मे रहने का आनंद ही कुछ और था। आम,लीची,जामुन,कटहल के साथ पोखरी (तालाब) मे स्नान। पढ़ाई से छुट्टी, चचेरे भाई बहन के साथ मटर गश्ती। वाह क्या सुनहरे दिन थे।
मेरे यहां औरते घर मे रहती थी और पुरुष दालान पर। दादाजी भोजन के लिए दोनो समय घर आकर किया करते लेकिन शाम मे उनके लिए चाय दलांन पर ले जाने का जिम्मा हम पोतियों की होती थी। पोते वंश होते उन्हे इस तरह के काम जिससे औरताना होने कि बू आती थी दूर रखा जाता था।
चार पोतियां पहले से थी और दो बहने हम पहुंच गए। शाम होते पता चला दादाजी कि चाय ले जाने की पारी लगी थी। हर दिन दो मिलकर चाय ले जाते थे। इस हिसाब से अब हमारी पारी दो दिन बाद आती थी।
आज चाय ले जाने की बात मेरी और एक चचेरी बहन की थी। हाथ मे चाय की केतली लिए हम बथान (मवेशियो के रहने का स्थान) पहुंचे तो मेरे साथ जो बहन थी उसने बताया चलो बथान मे तुमको एक बात बताती हूं।
वहां पहुंच कर वह दो मिट्टी का कूपा जिसे हम कपटी कहते है निकालकर लाई। उसने बताया यह मिट्टी का कूपा पूजा का बचा रह गया। हम लोग बारी बारी से इसलिए आते है, जो चाय लेकर आता है वह यहां बैठकर चाय पीता है। मुझे सुनकर हैरानी के साथ खुशी भी हुई। घर मे हम लड़कियो को चाय पीने की अनुमति नही थी। वहां बैठकर कुल्हर मे दोनो ने चाय पी। सच कहूं तो वह चोरी की कुल्हर वाली चाय पीकर जो आनंद आया पूरी जिन्दगी वह आनंद नही आया।
वहा से हम दोनों दादाजी के पास पहुंच कर उन्हे चाय पिलाई। दादाजी दो तीन कप चाय पीते थे।
एक दिन शायद हम दोनों ने कुछ ज्यादा ही चाय गटक लिया। दादा जी को शक तो नही हुआ परन्तु उन्होने कह दिया- क्या बात है चाय बहुत कम है दो कप भी पूरा नही हुआ। हम दोनो एक दूसरे को चोर निगाह से देखने लगे।
बच्चो का मन कितना भोला होता है, लौटते वक्त हमने प्लानिंग की घर चलकर उन दोनो को सतर्क कर दिया जाए, थोड़ी सी कम ही चाय ले वर्ना दादा जी जान जाएंगे।
उन लोगो ने तो हद ही कर दी। चाय पीकर केतली मे एक कप पानी मिला दी। आज दादा जी ने कुछ नही कहा, चुपचाप से चाय पी लिए। उन दोनों ने अपनी बहादुरी के किस्से हमे सुनाए। हमने सोचा यह तो अच्छा है जितना चाहो पी लो और हैडपंप से पानी निकाल कर केतली मे भर दो।
रात मे दादाजी खाने आए। उन्होने दादी पर रूआब दिखाते हुए कहा- क्या बात है कभी चाय कम,कभी फीकी न दूध न चीनी।
हमारे कान मे दादाजी की आवाज गुंज रही थी- चाय बनाई किसने???
हम सभी डर से कांप रहे थे,कही भेद खुल न जाए। दादी जी ने यह कहकर शांत करवाया- इंसान से गलती हो जाती है, अब ऐसा नही होगा। मै पहले दो घूंट पीकर देख लूंगी।
अब ??? हम सबो का चाय पार्टी कैसे होगा ?
हम सबने विचार-विमर्श कर नतीजा निकाला अब भी चाय हम पिएगे लेकिन आधे कूप्पे।
वह आधी कूप्पे चाय की स्वाद अभी भी जीभ पर है।
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