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कौन थी वह? प्रेतात्मा? Twins Flame thi meri


Twins Flame thi                     meri


राजेश याद है न आज हमें स्टेशन छोड़ने जाना है।
जी हां, पापा मैं जल्दी ही वापस आ जाऊंगा। गाड़ी दस बजे की है, यहां से नौ बजे निकलना है। मैं आठ बजे तक वापस आ जाऊंगा। कहते हुए राजेश घर से बाहर चला गया।
सुनैना ने सब कुछ ठीक कर लिया। खाना भी खा लिया जाए या राजेश का इंतजार किया जाए? राजेश के पिता ने कहा- खाना भी खा लो, वह आएगा तो हड़बड़ी हो जाएगी। दोनों खाना खाकर उठे ही थे कि घंटी बजी। लगता है राजेश आ गया कहते हुए मां ने दरवाजा खोला।
राजेश हम-दोनों खाना खा चुके अब तुम भी खा लो। मां अभी आठ बजे मुझसे खाना नहीं खाया जाएगा। मैं आकर का लूंगा। मैं गाड़ी गैराज से निकालता हूं आप लोग ताला लगाकर बाहर आ जाए।
स्टेशन पहुंचने पर ज्ञात हुआ गाड़ी एक घंटे लेट आ रही है।
सुनैना ने चिन्तित होते हुए कहा- एक घंटे लेट यानि ग्यारह बजे आएगी। राजेश तुमको लौटने में देर हो जाएगी, तुम चले जाओ।
राजेश ने हंसते हुए कहा- क्यो मां डर रही हो ? मैं बच्चा नहीं हूं, सेकेंड ईयर इंजिनियरिंग का विद्यार्थी हूं। आपका बेटा सही सलामत घर पहुंच जाएगा, आप निश्चित होकर जाए।
ग्यारह बजे गाड़ी पर अपने माता-पिता को विदा कर, गाड़ी लेकर में वापस घर को चला। सच कहूं तो सुनसान रास्ते को देखकर मेरा दिल भी कांप गया। थोड़ी दूर के बाद तो स्ट्रीट लाइट भी नहीं होगी। मेरे सामने अपने आप को भगवान भरोसे छोड़कर आगे बढ़ने के सिवा कोई चारा न था।
करीब दस किलोमीटर तक गाड़ी सरपट भगाता रहा। एकाएक गाड़ी झटके के साथ रुक गई।यह क्या हुआ ? कहीं क्लच वायर तो नहीं टूट गए। मैं गाड़ी से उतर कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। सुनसान रास्ते, सियार के बोलने की आवाज दिल की धड़कन बढ़ा रही थी। ऐसे में इन्सान करे तो क्या करें ? मैंने गाड़ी ठीक करने की भरपूर कोशिश की । मैं ने अपनी सारी शक्ति बटोरी और गाड़ी से नीचे आया। हर तरफ से जांच पड़ताल की पर गाड़ी को न ठीक होना था न हुआ।

अब क्या करूं ? यह प्रश्र मेरे सामने खड़ा था । घड़ी में नजर दौड़ाई तो जान ही निकल गई। अरे बाप रे बाप बारह बज गए। इधर उधर नजर दौड़ाई कहीं कोई घर नहीं दिखाई दिया। सोचा गाड़ी में ही बैठा रहूं, सोया रहूं तो सोच भी नहीं सकता था, ऐसे हालात में कोई कैसे सो सकता है। दूसरे ही क्षण विचार आया, गाड़ी लांक कर थोड़ी दूर चलकर देखता हूं शायद कोई घर हो ?
मैं चारों तरफ देखते हुए हनुमान चालीसा पढ़ते हुए आगे बढता ही जा रहा था, जो चालीसा मेरा पूरा नहीं हो पा रहा था। डर से बीच बीच में भूल जाता था, फिर से शुरू करता।
एकाएक मुझे एक झोपड़ी सी दिखाई दी, मेरा खुशी का ठिकाना न रहा। मैं भागता हुआ झोपड़ी तक पहुंचा। पहले गहरी सांस खींचकर अपने आप को शांत किया। झोपड़ी में कोई घंटी भी तो होती नहीं है, मैंने आवाज़ लगाई- कोई है अन्दर ?
मेरी आवाज़ सुनकर एक बुढ़ी औरत बाहर आई। उसके पास कोई रोशनी नहीं था फिर भी मैंने उसके झूर्रियों से भरे चेहरे से अंदाजा लगाया लगाया, इसकी उम्र अस्सी पार होगी।
उसने पूछा भी नहीं कौन हूं ? क्यो आया हूं ?
कहा- अंदर आ जाओ। मैं अंदर गया तो बोली- लोटा में पानी है हाथ मुंह धो लो। तब तक मैं खाना लेकर आती हूं। 
बार बार खाना नही बना पाती सबेरे के लिए भी दो रोटी बनाकर रख लेती हूं।
मैं शायद तंद्रा से जगा बोल उठा - रहने दो मुझे भूख नहीं है।
उसने कहां- कैसे भूख नहीं लगी है, में तो तुम्हारे चेहरे देखकर समझ गई तुम भूखे हों।
अब उनके आदेश मानने के अलावा रास्ता नहीं था।
मैं अंदर गया तो एक बेहद खूबसूरत औरत थाल में खाने लेकर आ गई। मैं अकबका कर थोड़ी देर तक उसे देखता ही रह गया। सोचने लगा शायद उस औरत की बेटी होगी ?
मैं खाना खा रहा था और सोच रहा था, कौन है यह ??
वह मुझसे कुछ ऐसे बात करने लगी जैसे मुझे बरसों से जानती है। मुझे भी उसका अपनापन का भाव अच्छा लग रहा था। वह बहुत प्यार से मिल रही थी एक अजनबी से, मुझे उसके चरित्र पर भी शंका हो रहा था।

मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मेरा वजूद मेरा नहीं रहा मैं उसकी तरफ आकर्षित हो चुका था। वह जो बोल रही थी सुन रहा था, जो कहती करता था लेकिन अपना एक सवाल पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
वह बुढ़ी औरत कौन है ??
हम दोनों भावनात्मक से होते हुए शारिरिक रुप में भी एक दूसरे के हो चुके थे। मैं बहुत खुश था, मेरे मुंह से निकल गया वही प्रश्र जो मुझे परेशान किए हुए था- अच्छा बताओ वह बुढ़ी औरत कौन है?

उसका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया।
इस औरत का पति बोलकर गया था मैं आ रहा हूं। जब वह गया था इसकी उम्र बीस साल रही होगी, आज साठ साल से वह उसका रास्ता देख रही है। सबको कहती हैं- देखना मेरा पति जरुर आएगा।

सुबह होने को आ रहा था। मेरी नींद खुली तो अपनी गाड़ी की याद आ गई। मैं झोपड़ी में इधर उधर दोनों को ढूढता रहा। हारकर मैने सोचा चला जाता हूं बाद में कल आकर मिल लूंगा।

ऐसा सोचकर मैं गाड़ी तक पहुंचा। अनमने से गाड़ी खोलकर स्टार्ट करके देखनी चाही। 
अरे वाह गाड़ी तो यू स्टार्ट हो गई जैसे कुछ हुआ ही न था।

मैं घर आ तो गया पर मै बेचैन रहा बिना मिले, नही आनी चाहिए थी। मुझे एक-एक पल बिताने भारी लग रहा था।
खा पीकर सो गया, मैं शाम होते घर से निकल कर वहां पहुंच गया। गाड़ी मेन रोड में रखकर में उसके झोपड़ी तक पहुंचा ही था कि भीड़ देख ठिठक गया। एक आदमी से पूछा - क्या हुआ ? यह भीड़ कैसी है?
उसने ज़बाब दिया - एक बूढ़ी औरत थी, मर गई। उसका कोई नहीं सब मिलकर अर्थी उठाने की व्यवस्था कर रहे हैं।
मैने कहा- उसकी एक बेटी भी तो थी ?
उसने मुझे घूरते हुए जबाब दिया - नही वह अकेली रहती थी।
कुछ लोग तो उसे प्रेत समझते धे। सुनने मे आता है वह अपना रूप बदलकर जवान बन जाती थी।
मेरे पैरो मे कंपन शुरू हो गई । 
मैने उसे दोनो रूप मे देखा धा। मै सोच रहा था क्या वह वास्तव मे प्रेतात्मा थी जिससे मै मुहब्बत कर बैठा धा। उसने कहा था उसका पति आएगा उसका अर्थी उठाने।

मै कैसे आ पहुंच यहां ? गाड़ी ठीक कैसे हो गई ?
लोग पैसे इक्कठे कर रहे थे, पर मुखाग्नि देने को कोई तैयार न था। मै चुप-चाप सब देख रहा था। मुखाग्नि देने वाले को तेरह दिन तक श्राद्ध करने होते हैं। शायद यही वजह होगी कोई तैयार नहीं हो रहा था।
मुझे ऐसा लगा मै ही शायद इसका पूर्व जन्म मे पति था, मुझसे मिलने के लिए  ही वह जी रही थी। इन्ही बातो मे खोया हुआ था - मेरे मुंह से अचानक निकल गया- मै मुखाग्नि दे दूंगा ।
आज भी सोचता हू - कौन थी वह ???
ऐसा- होता है क्या ?

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