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नदी की तलाश है

मरूभूमि के रेत कितना भी प्यासा है।
प्यास उसकी ओस की बूँदो मे कैद है।

समुन्द्र की है मजाल कहा प्यास बुझाए।
अथाह जलराशि देख दिल यू ही घबराए।

समंदर की पौरुष को अन्नत रक्षता न दो।
उसकी सम्पूर्णता उसकी वाचलता से है।

नदी का अथाह रूप भी निरर्थक हो चला।
समंदर तुमसे विस्तार पा विशाल हो चला।

रेत की ज्वालामूखी को नदी की तलाश है।
छोटी ही सही पर नदी कहीं आस पास है।

मुस्कुराहट और सहानुभूति लिए पास आएगी।
रेत के कण-कण की जलती ज्वाला बुझाएगी।

मेरी मुस्कुराहट मे समर्पण का भाव था।
मुझे कहां अस्तित्व खो जाने का डर था।

रेत का अपना अस्तित्व ही कहां होता है।
झोंका हवा का पटक दे कहां पता होता है।

कहां पता होता है

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