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भाव का भूखा होता है प्रेम

प्रेम भाव का भूखा है 

प्रेम को देखने का नजरिया बदल जाए। 

जिसका कोई छोड़ कभी ना रहा है ना रहेगा। 

प्रेम करने का कोई विधान ना रहा है और ना रहेगा। 

पूरी सृष्टि संपूर्ण ब्रह्मांड में सदा से व्याप्त रहा है प्रेम।

जीव प्रकृति धरती से अम्बर तक दृष्टि गोचर होता है प्रेम।

कोई छोर कोई सीमा में कहां कब बंधा है यह प्रेम।

प्रेम का तो कभी भी छोर कोई सीमा ही नहीं रही।

पशु पक्षी से लेकर माता-पिता बंधु बांधव सबमें समाहित है प्रेम।

हर शब्द हर भाव हर एक अर्थ में पाया जाता है प्रेम।

शरीर और शरीर से परे आत्मा का सम्बन्ध है प्रेम।

प्रेम कहीं साधन तो कहीं साध्य बन जाता है प्रेम।

कभी प्रेमी के खातिर भी प्रेम को त्यागा जाता है।

वसुंधा के कण कण में व्याप्त है पर दिखता नहीं है प्रेम।

मिलता नहीं धन दौलत वैभव से भाव का भूखा है प्रेम।

खरीद सकते नहीं सबके नसीब में लिखा नहीं होता।

बड़ भागी शख्स होते जिन्हे हासिल होता है यह प्रेम।

प्रेम का मिलना नसीब की बात है इसमें रहना तेरे हाथ है। 

प्रेम मिलने वालों से भी बड़ा होता है इसे बांटने वाला।

प्रेम कभी भी शरीर का विषय न रहा है न रहेगा।


प्रेम के लिए ही प्रेम करना कृष्ण वचन है।

 


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