Mai hu na
प्रेम की परिभाषा कहूं क्या?
प्रेम शारीरिक आकर्षण नहीं।
प्रेम किसी वादे की मुहताज नहीं।
यह तो बस प्यारा सा एहसास हैं।
प्रेम जिससे हो,आपका हो जरुरी नहीं।
जिससे हो उसे पता, चले जरूरी नहीं।
प्रेम को पाने की ख्वाहिश तो बंधन है।
प्रेम सिर्फ प्रेम के लिए रहे तो मुक्ति है।
प्रेम को भावनात्मक मानसिक कह दो।
इसे *मैं हूं ना* का विश्वास समझ लो।
प्रेम जो जैसा है वैसा स्वीकार करना है।
अवहेलना बिछोह का ना परवाह करना है।
देह पा सकती कभी क्या प्रेम को?
सुना है प्रेम का आत्मा से अनुबंध है।
नींद नीलाम हो जाए इस अनुबंध में।
ओठों पर कभी शिकायत नहीं होती।
बड़ा सौभाग्य है किसी के लिए अहम होना।
अहम होने का असर प्रेम खोने के बाद होता।
प्रेम की हार भी जीत सी महसूस होती है।
सामने होता है जब अपना जीतने वाला।
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