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हर लाश कफ़न पा जाए जरूरी नहीं है

 

 

 
नंगी रह जाती है कई लाशें 


तुम मौन हो गए कागज़ कलम थमा दी।

मन की पीर या कोई गीत सुनाऊं प्रिय।


चंदन वन में आग लगी सब राख हो गया।

उड़ते राख समेटूं या बैठकर शोक मनाऊं।


बसंत भ्रमित कर गया तन - मन मेरा।

पतझड़ चला जब साथ मेरे कहो प्रिय।

पतझड़ जैसे साथी को मैं कैसे ठुकराऊं।


दिन तेरे यादों में बीता, रातों में बस सपने ढोऊं।

पूछते हैं नयन हमारे रोऊं तो अब कितना रोऊं।


उस रास्ता का खो जाना जो तेरे घर को जाता है।

थके पांव को राह ग़लत थी लौटने को कैसे मनाऊं।

प्रिय तुम्हारे सामने मानी गलती पांव को कैसे समझाऊं।


जिंदगी में हर वादा निभाना ज़रुरी नहीं है।

नंगी रह जाती हैं कई लाशें इस जमाने में।

हरेक लाश कफ़न पा जाए जरूरी नहीं है।


मेरे लेखन में वो धार नहीं फिर भी लिखना बेकार नहीं है।

कलम का काग़ज़ पर चलते जाना यह मेरा व्यापार नहीं है


किसका दिया आदेश है ? प्रियतम दुनिया को कैसे समझाऊं ???

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