स्त्री हो एक मर्द की नज़र से अपने को देखो।
स्त्री हो तुम घर संवारने का काम तुम्हारा।
एक मकान को घर बनाने का जिम्मेदारी।
घर बिखरने का दंश बर्दाश्त करना तुमको।
फटी चीजों को सिलना भी, फटने का इल्जाम भी तेरा।
धागों से कभी पूरा ना हो सके, ऐसा अधूरे सपने बुनना।
बेकार समझे जानेवाले काम की भट्टी में जलना तेरा।
स्त्री हो अपनी पीड़ा को अनवरत पीकर हंसते रहना।
हर वक्त बातें करना और बातूनी की उपाधि पाना।
स्त्री होना खूबसूरती के साथ बुद्धि का घुटने में होना।
जिसके झांसे में ना आ सको उसके लिए वेश्या सुनना।
या खुदा तुम स्त्री नहीं बनाता तो बताओ तेरा क्या जाता।
स्त्री बनाना जरूरी था तो फिर पुरुष सा कठोर तों बनाता।
पुरुष को जन्म देनेवाली को उसका एहसानमंद तो बनाता।
थक जाती स्त्रियां भी अकेले रिश्ता बचाते- बचाते।
पुरुषों को भी रिश्तों की अहमियत समझाया होता।
फिर भी कहां हारती है स्त्रियां इनको हराया जाता है।
दुनिया वाले क्या कहेंगे ? कह कर धमकाया जाता है।
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