रिश्तों की भीड़ से थक कर,
चला मैं अपनी ओर,
जहां कोई शब्द नहीं,
बस मौन था शांति की डोर।
उम्मीदें जो बांधती थीं,
अब धीरे-धीरे छूट चलीं,
न कोई शिकायत रही,
न आंखों में वो भीगी सी लकीरें।
हर अधूरी चाहत को छोड़,
जब मैं खुद से मिलने निकला,
तब पाया ईश्वर को भीतर,
जो न किसी मंदिर या तीरथ में मिला।
मोहभंग आया तेरे द्वार,
भीतर उतरना हुआ आसान।
जहां राधा नाम के स्वर में,
आत्मबल ने फिर से मुझे छुआ।
अब न कोई डर, न लालसा शेष,
बस एक शांति की गूंज है,
जो साथ निभाता हर मोड़ पर,
वो मेरा अंतर्यामी ना दूसरा कोई और है।
नोट -- थोड़ा कविता की ओर चलते हैं 🤔
हमारा जीवन एक लंबे सफ़र की तरह होता है, जिसमें हम जाने-अनजाने किसी न किसी के साथ चलने लगते हैं।
दोस्त, प्रेमी,परिवार,सहकर्मी, हर किसी से एक नया रिश्ता , नया बंधन, एक नया विश्वास लिए।
हम भरसक प्रयास कर हर बार उन्हें अपनी ओर से अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं।
रिश्तो में हम पूरे दिल से अपना निस्वार्थ प्रेम, समय, ऊर्जा, सहानुभूति, तन, मन और धन—सब कुछ उन पर बेशर्त खुशी से न्यौछावर कर देते हैं।
मन के किसी कोने में आस लिए हमें भी उनसे वैसा ही अपनापन,वैसा ही भावनात्मक सहारा मिलेगा।
लेकिन वास्तविकता अक्सर कल्पनाओं से अलग होती है। अक्सर बदले में उनसे हमें कभी उपेक्षा, कभी चुप्पी और कभी तटस्थता आदि मिलते हैं।
यह चाहत हमारे अवसाद का कारण बन जाती है।
फिर एक दिन ऐसा आता है, जब प्रयास करते-करते हम भीतर तक थक कर टूट जाते हैं।
इस थकान में शरीर और आत्मा दोनों को घायल कर देते हैं। थकान शरीर की ही नहीं आत्मा की भी होती है। दुर्भाग्यवश घायल आत्मा की कोई दवा नहीं है, योगा में मेडिटेशन शाय़द इसका इलाज हो।
मेडिटेशन तो एक यात्रा है अपने अंदर जाकर कुछ ढूंढने की।
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Bahar se andar ki Yatra |
अंदर उस मोड़ पर आकर हम खुद से सवाल पूछते हैं:
क्या मुझमें ही कोई कमी है ?
मैंने जो किया कम था ?
रिश्ते को मुझसे अधिक की उम्मीद थी?
क्या मुझमें इमानदारी की कमी थी ?
घायल मन बार-बार अपने प्रश्न हमारे सामने रखता है।
जिसमें सबसे बड़ा सवाल होता--- क्या मैं ग़लत थी ?
यह एक ऐसा सवाल है --
''जो इतने टूकड़ों में तोड़फोड़ कर जाता है कि आत्मविश्वास की नींव हिला देता है।"
जब हम पूरी ईमानदारी से जवाब तलाशते हैं, तब हमें समझ आता है कि हमने अपना हर फ़र्ज़ निभाया था।
बदले में बेइज्जती और टूटन के सिवा कुछ नहीं मिलता।
इसी मोड़ पर आकर इंसान का रिश्ता से मोहभंग शुरू हो जाता है।
मोहभंग कभी अचानक नहीं होता सदियों से जुड़ा मन को मनाना आसान नहीं होता, वह धीरे-धीरे होता है एक लंबी प्रक्रिया से, मेडिटेशन से।
मोहभंग की यात्रा कई परतों से गुजरना होता है --
सबसे पहले सफाई मांगना या सफाई देना छोड़ते है।
किसी भी तरह की शिकायत नहीं करने का प्रण लेते हैं।
रिश्ते को बनाए रखने के लिए माफी मांगना बंद करते हैं।
उसके बाद हम उम्मीदें छोड़ते हैं, रोना बंद कर अपने आप को संभालने में जुट जाते हैं।
इस अवस्था में कोई भी चीज़ चुभती नहीं, बस असर करना बंद कर देती है।
जिन लोगों के एक शब्द से कभी दिल भर आता था, अब उनकी चुप्पी भी सामान्य लगने लगती है।
अब किसी की मौजूदगी सुकून नहीं देती,और किसी की गैरमौजूदगी तकलीफ़ नहीं देती।
ये मोहभंग का पहला कदम है।
इस मतलबी दुनिया से उबकर … थककर चूर हो कर हम खुद के पास लौटते हैं।
जब हर ओर से सारे रिश्ते नातों के धागे टूट जाते हैं, तो हम अपने भीतर उतरते हैं।
जी हां अपने अंदर -- आज तक हमने झांका ही नहीं था। खुद को समझने लगते हैं।
अंदर की यात्रा में चौक उठते हैं जब वहां हम परमपिता परमेश्वर को देखते हैं।
उसकी तलाश में तो हम मंदिर - मंदिर भटकते रहे हैं। हमें ईश्वर मिलते हैं शायद वही जिसे हम पहले बाहर ढूंढते थे लेकिन हमें अहसास होता है कि वह तो हमारे भीतर ही था।
हमारी हर थकावट, हर टूटी उम्मीद, हर गिरा हुआ आंसू उसने सब देखा था।
हमारी हरेक क्रिया -कलाप पर उसकी नजर रही है। फिर धीरे-धीरे यह अहसास गहराता है---कि जब ईश्वर हाथ थाम ले, तो किसी रिश्ते के छूटने का दुःख शून्य हो जाता है।
तब न कोई शिकायत रहती है, न कोई इंतजार न कोई मलाल। यहां सुकून है ना कोई चाहत,ना ठूकराए जाने का भय, ना कुछ खोने की या पाने की चिंता।
मोहभंग का अंतिम चरण सत्य क्या है?
हम बाहर के शोर से भीतर की शांति तक का सफर तय कर लेते हैं।
यह कि हम जान जाते हैं—जो चला गया वो अपना था ही नहीं शायद हमारा भ्रम था।
भ्रम का टूटना भी अब नहीं खलता। रस्सी को सांप समझ बैठने वाला मन ठहाके 🤣🤣🤣लगाने लगता है।
उसे समझ आती हर हाल में साथ चलता है वह होता है ईश्वर, और हमारा अपना आत्मबल।
मोहभंग दुःख नहीं है, खुशी का वह पल है " जब राजा जनक राजा होते हुए भी विदेह कहलाये।"
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