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Khamoshi bhi sukun deti hai |
नज़रें मिलीं, जैसे दो पुराने मुसाफिर।
एक ही मोड़ पर फिर से टकरा गए हों।
चलने की वजहें अब बदल चुकी थीं,
मन का रास्ता अब जुदा हो चुका था।
ना वो कुछ कह सकता था,
ना वो कुछ सुन सकती थी।
दोनों ने खामोशी को चुना —
क्योंकि कुछ कहने से जो टूट सकता था,
उसको यादों में बचा रखना चाहता था।
`
उसने कुछ भी कहा नहीं---
उसकी आंखों ने वो सब लौटा दिया,
जो उसकी आंखों में डूबों दिया था।
जब दोनों एक बार फिर मिले---
तो वहां केवल मौन था।
ना शिकवा, ना शिकायत,
बस आंखों में सवाल था।
आखिर क्यों? क्या हुआ ?
वो चेहरा जो कभी ख्वाबों में रहता था,
अब सामने था — पर अजनबी सा था।
होठों की थरथराहट ने सब कह दिया,
जो दिल उससे कहने से डरता था।
एक क़दम उन्होंने बढ़ाया ।
पर वक्त ने दूरी बना ली थी।
ख़ामोशी, जो कभी सुकून देती थी,
अब सज़ा बन गई थी इस मिलन की।
उसकी आंखों में वही चमक थी।
सब कुछ वैसा का वैसा ही तो था।
पर उसमें मैं कहीं नहीं था।
मेरे लबों पे उसका नाम था,
पर उसका एहसास मर चुका था।
एक चिट्ठी, एक सेहरा, एक विदाई,
और अब फिर से एक मुलाक़ात —
बस मौन की गवाही।
कुछ रिश्ते वक्त से नहीं,
ख़ामोशी से तय होते हैं।
और ये जिंदगी का वही पल था,
जहां सब कुछ कहा गया — बिना बोले।
बरसात थी — हल्की सी,
जैसे बादलों ने उनकी ख़ामोशी समझ ली हो।
एक पुरानी चाय की दुकान,
जहां दो कप रखे थे —
और दो दिल थमे हुए।
वो बैठी थी खिड़की के पास,
उसने देखा — वो आ गया था।
चेहरे पर ना हैरानी, ना मुस्कान,
बस 'मैं जानता हूं' वाली झलक।
चाय का कप उठाया उसने,
भाप में अतीत बहने लगा।
हर घूंट में कुछ पुराने लम्हे थे,
हर चुस्की में अधूरे अल्फाज़।
बारिश ने टपक कर जवाब दिया---
जो तुम कह नहीं पाए — वो बह गया।
शायद वह कोई और था, जो कह गया।
एक आह आई हवा के साथ,
जो मन से एक साथ निकली।
फिर वो उठे — कोई विदाई नहीं थी।
इस बार — सब कुछ कहा गया था,
बिना कुछ बोले, एक कप चाय की गर्माहट में।
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