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बदला वह भी जो कभी अपना था

 


बदला वह भी जो कभी अपना था

उसके जीवन से निकल जाना था।

वगैर कोई शिकवा- शिकायत के।


पूर्व जन्म की मान्यता के अनुसार।

बस इतना ही दिनों का साथ था।


अब अपने मन को पढ़ना सीखना है।

भाव को अपने, शब्दों में पिरोना है।


दुनिया के सारे बंधन से मुक्त होना है।

तो अपने आप को समझना जरूरी है।


जब प्यार आपको दूर से आवाज़ दे।

परिणाम सोचे वगैर जीवन में आने दे।


(2)


मिटाने के लिए मुझे लिखना अच्छा नहीं लगता।

खाली हाथ महफ़िल में जाना अच्छा नहीं लगता।


जाने को तो चले जाते हैं, हम बिना बुलाए महफ़िल में।


हाथ पकड़ अपनो से निकाला जाना अच्छा नहीं लगता।


पंखुरी झरने के बाद फूल गुलदस्ते में अच्छा नहीं लगता।


मैंने तुम को पाने के लिए नहीं चाहा था।

खामखा डर गए अपने आप को खोने से।


तन्हाइयों में मैं ख़त लिखता-मिटाता ही रह गया।

उस तक पहुंचने से पहले कहानी ही पलट गई।


वाकई मूर्ख थी जानती थी कुछ भी शाश्वत नहीं।

जिस्म हासिल कर लो रुह छूने की इजाजत नहीं।


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