वहां जाता हूं तो सब भूल जाता हूं।
अब अंधेरे का अभ्यस्त हो गया हूं।
रोशनी में जाता हूं तो डर जाता हूं।
उनको भी ऐतराज है, मेरे मुस्कुराने पर,
जिनको खुश रखने में खुद टूट जाता हूं।
जब भी मैं उनके पास कदम बढ़ाता हूं।
फासले अपने बीच और बढ़ा ही पता हूं।
अगर मैंने सारे दरख़्त यूं काटे ना होते,
तो ऐ रौशनी तुम तक नहीं पहुंच पाते।
दराड़े जिस्म नहीं, जीगर पर गर होते,
नमी कोई भी वहां तक नहीं पहुंच पाते।
बुरी है या भली है, आदत अपनी,
हमसे बार- बार बदली नहीं जाती।
माना शराब जरुरत बन गई अपनी,
इतनी कड़वी है मुझसे पी नहीं जाती।
मुझे क्या से क्या बना दिया तुमने,
तुमसे शिकायत तेरी की नहीं जाती।
सिरफिरे सही, ना बहला सकेंगे आप हमको,
हमें पता है उंचाई इसकी, ढलान भी इसका।
आपके पैरों तले जमीन, सर पर आसमान है।
हम फटे हाल है, हमारे पास तो कुछ भी नहीं है।
किसको सुनाएं अपनी दर्दे- दास्तांने- मुहब्बत,
सैयद अली शाह पीर का मजार दिखता नहीं है।

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