"रिश्तों की चुप्पी और मेरी कविता"
भूमिका:
ज़िंदगी में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो बिना किसी शोर के आते हैं, और बिना किसी अलविदा के चले जाते हैं।
उनके जाने की आवाज़ नहीं होती, पर उनकी गैरहाज़िरी की गूंज बहुत देर तक सुनाई देती है।
कोई भी रिश्ते नाजायज़ नहीं होते, उसे देखने समझने की समझदारी में फर्क उसे नाजायज़ करार देता है।
मुख्य भाव: - कुछ लोग बहुत करीब आते हैं और फिर ऐसे चले जाते हैं जैसे कभी थे ही नहीं। उनकी आदतें हम सबकी दिनचर्या बन जाती है।
जाने की कोई वजह नहीं दी, आप खुद वजह तलाशते रह जाते हैं, कहां क्या ग़लती हुई। अपने आप को दोषी मानकर अवसाद में चला जाना, हजारों सवाल का जबाब ढूंढते थक जाते हो।
क्या यह साथ सिर्फ एक सुविधा थी?
क्या रिश्तों में इतनी बेरुख़ी जायज़ है?
सबसे अहम सवाल -- आखिर क्यों ? मेरे साथ ही क्यों ?
आपके दिल-दिमाग पर छा जाता है।
सच्चाई यह जो छुपी रहती है -- यह भौतिकवादी युग है और इसके अपने नियम-कानून है।
प्रश्नों की भरमार और उसकी पीड़ा: -
दोस्ती हो या रिश्ते उसमें में एक औपचारिकता नहीं होनी चाहिए कि कम से कम हालचाल पूछ लिया जाए?
आखिर कैसे बनते हैं यह रिश्ते जिसमें कोई जुड़ाव ही ना हो?
क्या यह जुड़ाव बगैर दिल का साथ मिले भी अपनापन का ढोंग किया जा सकता है ? कितने बेहतरीन एक्टर हो गए हैं हम।
क्या ऐ अपनापन यह दिखावा को ही Ghosting कहते हैं?
क्या इंसानियत यही है कि जब दुनिया मिल जाए तो पुराने रिश्तों को बिना वजह छोड़ दिया जाए?
निष्कर्ष:
मैं सवालों से भरी हूं, जवाबों की तलाश है—बस यह जानना चाहती हूं कि क्या वाकई जुड़ाव इतना अस्थायी होता है?
🖋️ एक कविता: "सन्नाटे की आवाज़"
रिश्तों की गलियों में मेरी चुप्पी बसी थी,
मैं वहीं खड़ी थी, जहां तुमसे बिछड़ी थी।
तुम्हारी 'गुड मॉर्निंग' मेरी सुबह बन गई थी,
सूरज को 'गुड मार्निंग' की इजाजत नहीं थी।
तेरे गुड मॉर्निंग बगैर सुबह भी हमारा नही है।
मेरा सूरज बिना मेरे इजाज़त निकलता नहीं है।
सालों - साल की चाय की वो आदत,
अब कप भरी है पर मन खाली-खाली।
तुम गए, बिना वजह, बिना अलविदा,
मैं रह गई, वजहों की भीड़ में अकेली।
क्या इतना ही था ---
मेरा हिस्सा तुम्हारी कहानी में ?
या कुछ पन्ने फाड़ डाली किसी ने?
अचंभित किरदार मेरा रो रहा तकिया भींचे।
सांत्वना के कोई दो शब्द उधार मुझको दे दें।
मेरा सवाल अब भी वहीं है?
सब चुप है लगता है,जैसे सवालो ने,
जवाबों की चुप्पी से दोस्ती कर ली।
गैर था जो सन्नाटा वही है मेरा साथी ,
उसकी आवाज़ में खुद को ढूंढती हूं।
सुनती हूं---
इंसान का आस्था विश्वास,
पत्थर को खुदा बना देता है।
जाने कैसी आस्था थी?
कैसा था विश्वास मेरा?
टूटने को टूटा बगैर आवाज किए ?
शायद कोई खुदा आकर फिर से जोड़े।

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