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राहें जुदा हों तो इश्क़ अधूरा है


तू चाहत रखता है —  

मेरी ज़िंदगी तेरे इशारों पे चले,  

रंग वो पहनूँ जो तुझे भाए,  

पर क्या कभी तूने सोचा,  

कि मेरी रूह क्या चाहती है?


मुझे तेरी आदतें नहीं भातीं,  

वो सिगरेट की तुम्हारी तल्ख़ी,  

दारू की बेहोशी, गुटखे की गंध,  

और वो नज़रों की बेज़ारी —  

जो औरत को सिर्फ़ तमाशा समझती हैं।


क्या तू छोड़ सकता है ये सब?  

क्या मेरी रातों की तन्हाई को,

दे सकता है सुकून भरी नींद?

तू मेरे लिए रौशनी ला सकता है?


अगर तू कहे —  

"हाँ, मैं बदलूँगा तेरे लिए,"  

तो मैं भी कहूँगी —  

"तेरे रंग में रंग जाऊँगी,  

तेरी पसंद को अपना लिबास बना लूँगी।"


मगर ये सौदा बराबरी का हो,  

इश्क़ में झुकना नहीं,  

साथ चलना हो।


वरना —  

तेरी राह अलग, मेरी राह अलग,  

क्योंकि झूठ के साए में  

इश्क़ की रौशनी नहीं जलती।


इज़्ज़त दी नहीं जाती तो  

माँगी भी नहीं जाती,  

और जो अपने दिल के ख़ज़ाने में  

मोहब्बत जमा नहीं करता,  

वो तिजोरी से वफ़ा निकाल नहीं सकता है?

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