कविता : द्रौपदी और कृष्ण संवाद
अठारह दिन का युद्ध विध्वंस,
हस्तिनापुर की रक्तरंजित धरती।
द्रौपदी की देह और आत्मा,
बोझिल मन को भी थका गया।
विधवाओं का सैलाब,
वीर पुरुष कहीं खो गए,
अनाथ बच्चों की आँखों में
भविष्य के प्रश्न खड़े हो गए।
😥 शून्य को ताकती महारानी,
द्रौपदी—
जिसकी आँखों में आँसू,
और हृदय में शून्यता थी।
कक्ष में प्रवेश करते हैं कृष्ण,
सखा को देख द्रौपदी दौड़ पड़ती है,
आँसुओं में डूबकर लिपट जाती है।
अपने सखा कृष्ण से।
कृष्ण सहलाते हैं उसका सिर,
रोने देते हैं उसे जी भर,
पलंग पर बैठाते हैं— और कहते हैं: -
"नियति सदा से क्रूर है पांचाली,
वह हमारे सोच से नहीं चलती,
कर्मों को परिणाम में बदल देती है।
तुम्हारा प्रतिशोध पूर्ण हुआ,
सारे कौरवों का नाश हुआ।
मिट गए सब यही तो चाहा था तुमने?"
द्रौपदी की पीड़ा फूट पड़ती है:
"सखा आप भी ऐसा सोचते हैं ?
मधुसूदन घावों पर मरहम लगाने आए हो,
या मेरे जले पर नमक छिड़कने ?
इस विनाशकारी युद्ध का दोषी बनाने?
कृष्ण मुस्कुराते हैं—-"नहीं पांचाली,
मैं तो बस तुम्हें सत्य दिखाने आया हूँ।
हमारे शब्द भी तो हमारे ही कर्म होते हैं,
उनके दुष्परिणाम सिर्फ हमें नहीं,
पूरे जगत को दुखी किया करते हैं।
तुम्हारे वो शब्द --बन गए कर्म
जब अपने स्वयंवर में--तुमने कर्ण को,
सूतपुत्र कह अपमानित ना किया होता।
कर्ण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होता।
शाब्दिक कर्म कुछ अलग कहानी रचती।
पाँच पतियों का आदेश को तुने ठुकराया होता।
स्त्रीयोचित व्यवहार से मां कुंती को मनाया होता।
पांचाली--तेरे किरदार की अलग ही कहानी होती।
पांच की पत्नी नहीं, तू अर्जून की पटरानी होती।
दुर्योधन को अपने ही महल में बुला कर पांचाली,
उसे और उसके पिताश्री को अंधा कहा ना होता।
तेरे शब्दों के विषवाण तेरा कभी कर्म ना होता।
तो तेरे विषैले शब्द युद्ध विध्वंस शून्यता ना रचते।
द्रौपदी मौन हो जाती है।
कृष्ण की वाणी गूंजती है:--सखे,
तुम ग़लत नहीं, पर शब्द यदि ग़लत ना होता।
हस्तिनापुर का इतिहास भी कुछ और ही होता।


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