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लिफाफा देख मजमून भांप लिया |
ख्वाबगाह से कब्रिस्तान का सफ़र
डाकिया की आवाज सुन दरवाजे तक जाना याद है।
लिफाफा खोलते हाथों का यूं थरथराना अब भी याद है।
खतों से आती हुई तेरी हाथों की खुशबू याद है।
बेवजह मेरी गलियो मे तेरा आना-जाना याद है।
अब न वो खत,न डाकिया ना वो हाथों की खुशबू रही।
बेसूधी में वह लिफाफे में खत डालना ही भूल गया।
मेरी दीवानगी देखो लिफाफा देख मजमून भांप लिया।
मैं हूं तो हूं ,नहीं हूं तो, नहीं हूं कहीं हूं कहीं नहीं भी हूं।
किसी भी मजहब या किसी भी कौम में रख लो मुझको।
कब्रिस्तान में कब्र खोद हो या शमशान में जला दो मुझको।
मेरा कोई धर्म नहीं चाहे जहां जला दो या दफना दो मुझे।
इंसान हूं सारे जहान को अपना ही घर मानता हूं।
इंसानियत ही धर्म है उसका कद्र करना जानता हूं।
वह भी इतना एतमादी से बात कैसे करता है।
मेरा अजीज था वह भी ऐसी बात करता है।
वह भी इतना एतमादी से बात कैसे करता है।
मेरा अजीज था वह भी ऐसी बात करता है।
ख्वाबगाह से कब्रिस्तान तक की सफर तय की है हमने।
सपनों को जिंदा जला दी, लाश पड़ी रहने दी हमने।
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