स्त्री जो खुद को समझ चुकी
अब वो समझाना छोड़ चुकी है
कि उसे क्या चाहिए, क्या नहीं ?
वो चुपचाप दिल से हटा देती है
जो आत्मा को व्यथित करता हो।
अपनी कीमत पर बहस नहीं करती,
ना ही कीमत को जतलाया करती है।
ना ही अच्छा व्यवहार क्यों ज़रूरी है?
वो अब किसी को मनाने नहीं जाती।
वो अब इंसानियत की भीख नहीं मांगती।
ना मांगती उसे इज्जत दी जाए,
ईमानदारी क्यों मायने रखती है — ?
अब वो यह भी समझना नहीं चाहती।
दूसरों से स्थिरता की चाह को अब वो,
सही ठहराने की कोशिश नहीं करती।
कोई भीख नहीं,कोई दलील नहीं देती।
ना प्यार करने/सिखाने की ज़िम्मेदारी,
ना यह जताने की ज़रूरत कि वो मायने रखती है।
अब वो किसी के सामने नहीं गिड़गिड़ाती।
ना अपने मानकों की सफाई देती है,
ना अपनी सीमाओं का बचाव करती है।
ना सीमा निर्धारित करने वाले से टकराती है।
अब वो बस चुपचाप चली जाती है।
वो अब उस शोर को जगह नहीं देती
जो उसके आत्मिक शांति को तोड़ता है।
वो खुद को ऐसे में अलग कर लेती है।
वो खुद को चुनती है — बिना सफाई के।
वो अपनी शांति की रक्षा करती है —
वगैर आंसू बहाए बिना माफ़ी पाए।
केवल अपनी मानसिक सेहत के लिए।
अपनी भावनाओं को ऊपर रखती है।
वो प्यार करती है — ज़रूरत से नहीं,
अब वो प्यार के लिए बेताब नहीं है ।
अब वो अकेलेपन से डरा नहीं करती।
उसे अपनी कीमत पता है —
प्यार में दिमाग का इस्तेमाल ?
वो उस पर सौदा नहीं करती।
अब कोई समझौता नहीं करती।
तुम उसकी अहमियत नहीं समझते,
कोई बात नहीं कोई और समझेगा।
और वो उस किसी के लिए,
तमाम उम्र इंतजार करती है।
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