मैं बस उसी की अर्धांगिनी बनूंगी
यह कविता स्त्री के ऐतिहासिक और पौराणिक प्रतीकों को पुनर्परिभाषित करती है — दुर्गा, गंधारी, मीरा, सीता, यशोधरा — और उनके त्याग, सहनशीलता, प्रेम, और समर्पण को सम्मान देते हुए उनसे अलग रास्ता चुनने की घोषणा करती है।
नारी का प्रमाणपत्र ही काफ़ी है,
दूर्गा, काली आदर्श होना काफ़ी है,
पन्नाधाय, मेरी मनू छविली है काफ़ी
तुलसी बन ना तेरे घर के बाहर रहूंगी।
माफ़ करना देवी नहीं नारी रहना पसंद करूंगी🙏
आंखों पर पट्टी बांध मैं,
कभी अंधी नहीं बनूंगी,
पति का आंख बन,
साथ-साथ चलूंगी।
माफ़ करना मुझे मै कभी नहीं गंधारी बनूंगी 🙏
मैं वो नहीं एक तारा ले,
घर छोड़ साधू संग हो लूं,
किसी छलिया के मोह में,
जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लूं,
माफ़ करना कान्हा मीरा बन तेरे लिए एकतारा नही धरुंगी🙏
पत्नी बना कर छोड़े,
परित्यक्त जीवन पाऊं,
ऐसे भ्राता प्रेमी की सुनो,
मैं अर्धांगिनी नहीं बनूंगी,
माफ करना लक्ष्मण मैं उर्मिला नहीं बनूंगी 🙏
मुक्ति की चाह में सोते छोड़,
संसार में पूज्य होने वाले,
गौतम मेरा कसूर बताओ,
मुझे पति चाहिए मुक्ति नहीं,
माफ़ करना बुद्ध मैं कभी ना यशोधरा बनूंगी 🙏
पवित्रता साबित करने को,
अग्निपथ पर नहीं चलूंगी,
धोखे से वन में त्यागने वाले,
धोबी की बात में आनेवाले,
माफ़ करना मेरे राम मैं ना तेरी सीता बनूंगी🙏
तेरे प्रेम में पागल बनकर,
विरह वेदना नहीं सहूंगी,
रुक्मिणी पति कृष्ण सुनो,
तेरे प्यार में मैं ना कभी पड़ूंगी,
माफ़ करना कृष्ण मैं ना तेरी राधा बनूंगी🙏
सब कर्तव्य निभाउंगी मैं,
सहनशीलता के नाम पर,
अबला नारी नहीं बनूंगी,
जिसको मेरा मन वरण करेगा,
माफ़ करना मैं बस उसी की अर्धांगिनी बनूंगी 🙏
माफ़ करना ---यह कविता केवल अस्वीकृति नहीं है, बल्कि एक नई स्त्री की परिकल्पना है — जो प्रेम करेगी, साथ चलेगी, लेकिन अंध समर्पण नहीं करेगी।
अंतिम पंक्तियाँ — “जिसको मेरा मन वरण करेगा, मैं बस उसी की अर्धांगिनी कहलाऊंगी” — स्त्री की इच्छा, चयन और सम्मान का उद्घोष है।
जिसका समाजिक परिवेश में हनन कर लिया गया है।🙏
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