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Puchti hai keya mai bhi hissa hu


नमस्कार 🙏 आज एक प्रश्न ने बेचैन कर दिया। इतना तीखा जिसके जबाब से पहले अपनी जुबान तीखी करनी पड़ेगी। समय लगेगा लेकिन प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहेंगे।

आज आपके सामने कविता में स्त्री से परिचय करवाने की कोशिश मात्र है। मेरी समझ जहां तक जाती है स्त्री को सही रूप में पहचानना असंभव है खासकर जब आप पुरुष मानसिकता में हैं। धन्यवाद ❤️ 


स्त्री से परिचय


स्त्री से परिचय करवाने आई हूं,  

तेरे रसोई और बिस्तर से उसे निकाल लाई हूं।  

तेरे कठोर मन को जगाने आई हूं,  


उसकी भावना का एहसास कराने आई हूं।

जिसने तेरी गंदगी उठाई,  

तेरे "पौटी सूं सुं" उठाई।  

नौ महीने जिसके भीतर रहे,  

फिर भी जिसे ना समझ सके।


घर तेरा, बच्चे भी तेरे,  

उसका क्या है ? बतलाओगे ?  

पापड़-बड़ी सुखाती स्त्री,  

टूटे बटन टांकती चुपचाप।


बेटे की साइकिल, बेटी की साड़ी,  

अपनी इच्छा दबा, खुशी में डूबी।  

व्रत-त्योहार पति-बच्चों के लिए,  

खाना बना? रिमोट कहां है?


मोबाइल, रुमाल, सब पूछे उससे,  

सवालों की गठरी ढोती स्त्री।  

बिना डिग्री डॉक्टर बनी,  

नर्स बनी, सेवा में लिपटी रही।


जिसे कैक्टस समझा तूने,  

गले ना लगाया, दूर ही रखा।  

जिसने बिस्तर पर अपनी लाश सजाई,  

फिर भी ओठों पर अपने मुस्कान सजाई।


हंसी में दर्द छुपा उसका,  

तू पकड़ सके तो पकड़ ले।  

ढ़ूंढना अगर चाहे तेरा मन,  

मिल जाएगी हर रिश्ते की तुरपन में।


मेहमानों की हंसी छोड़,  

रसोई में जुटी रही वो।  

मकान को घर बनाया उसने,  

अब पूछती—क्या मैं भी हिस्सा हूं?


प्रश्नों के उत्तर खोजती रही,  

छोटे सवालों को दिल में रखती रही।  

फटे कपड़े सीती जाती,  

बटन टांकती, दिल भी टांकती।


दर्द को अपने मुस्कान से ढांके,  

तेरे कमीज के बटन में वो झांके।

 

धरती सी रौंदी जाती,  

जूती सी पहनी जाती।

दुनिया वालों तेरी दुनिया में,

नवरात्रि में पूजी जाती🙏



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