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उर्मिला लक्ष्मण संवाद

 




चौदह वर्ष... उर्मिला का दर्द

चौदह वर्ष----

कहने को एक संख्या है,  

पर मेरे लिए हर दिन एक युग था,  

हर रात एक परीक्षा।


तुम्हारे जाने के बाद  

मैंने तुम्हारे नाम को ओढ़ा,  

तुम्हारी यादों को बिछौना बनाया,  

और हर सुबह खुद को समझाया—  

"वो लौटेगा, ज़रूर लौटेगा।"


पर क्या तुम जानते हो  

प्रतीक्षा केवल प्रेम नहीं होती,  

वह एक तप है,  

जिसमें स्त्री अपने आप को, 

धीरे-धीरे राख में बदलती है।


तुम्हारे लौटने की ख़ुशी है,  

पर एक टीस भी है—  

कि जब तुम जंगलों में थे,  

मैं भी एक जंगल में थी,  

जहाँ कोई रास्ता नहीं था।  


कब? कहां ? कैसे ? नहीं ---

बस सिर्फ़ एक सवाल थे—

आखिर क्यों ???


तुम्हें जग में पूजा गया,

मुझे कोई नाम नहीं मिला।  

तुम्हारी भातृकथा गाई गई,  

मेरी चुप्पी बस चुप्पी ही रही।

मैंने त्यक्ता का दंश भूला दिया।


मैं शिकायत नहीं कर रही,  

बस चाहती हूँ कि तुम सुनो—  

कि प्रेमिका होना  

केवल प्रतीक्षा करना नहीं होता,  

बल्कि अपने अस्तित्व को,

प्रेम में हर दिन मिटाना होता है।


अब जब तुम लौटे हो,  

तो मुझे गले लगाने से पहले  

मेरी आँखों में देखना,  

और पूछना—  

"क्या तुम अब भी वही हो?"


क्योंकि मैं अब वह उर्मिला नहीं हूँ।

चौदह साल में दड़की विक्षिप्त स्त्री हूं।

एक नवविवाहित परित्यक्त औरत हूं।

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