नवंबर की खट्टी‑मीठी यादें
त्योहारों की रोशनी
लाखों दीप जले,
छठ सूर्य उपासना,
घर में चहल-पहल,
छठ गीत की गूँज,
खुशियों का मौसम आया।
सर्दी‑खाँसी बुखार संग लाया,
जीवन ने अपना रंग दिखाया।
ज़िदकर पुरी सफ़र पर चले,
जगन्नाथ जी के दर पे पहुँचे,
समुद्र की लहरों से मिली।
भक्ति और स्नान का संगम,
मन में अमिट छाप खिली।
लहरों का डर
गरजता सा समंदर दौड़ा,
एक लहर ने खींच लिया,
साँसें थमती हुई सी लगीं मुझे।
मौत सामने खड़ी दिखी मुझे।
बच्चे ने हाथ थामा मेरा,
मैंने भी जोर लगाया था।
तब जाकर कहीं मैं,
समंदर से बाहर आया था।
धड़कनें देर तक भागीं।
नाक बंद, बुखार से तपता तन,
अपनों को पास ना पाया तो,
मेरा मन बहुत घबराया।
घबराहट ने आकर घेर लिया।
खुद को बेबस लाचार पाया।
तुलसी‑ हल्दी का अमृत पिया,
योग‑प्राणायाम ने जीवन दिया।
बंद नाक अनुलोम-विलोम किया।
योगा मैट से जाने कब मिलन होगा।
क्या फिर से वो पुराना दिन होगा?
मन खोया तन खोया जीवन खोना बाकी है।
तू तो है पास मेरे, बस तेरा सहारा काफ़ी है।
---
दिसंबर का स्वागत
साल का अंतिम पन्ना खुल गया अब,
नए संकल्पों की रेखा फिर खिंचूंगी।
अयोध्या की राहें है पुकार रही मुझे,
राम 🙏जन्मभूमि जाने की तैयारी है।
पतिदेव भी साथ चलेंगे,
मोबाइल संग योग रहेगा।
होटल की चौखट पर भी,
प्राणायाम का दीप जलेगा।
डर लगता है अब हर सफ़र से मुझे,
समंदर क्या अब नदी में ना जाना है।
काशी विश्वनाथ का दर्शन करना है।
गंगा मां 🙏स्नान बिना लौट जाना है।

0 Comments